Monday, January 9, 2017

केदारनाथ कैसे जाएँ (How to reach Kedarnath)

 केदारनाथ : अद्भुत, अविश्सनीय, अकल्पनीय 

वैसे तो पूरा उत्तराखंड ही देव भूमि कहा जाता है। उत्तराखंड का हिन्दू संस्कृति और धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ जैसे कई सिद्ध तीर्थ स्थल हैं। सारी दुनिया में भगवान शिव के करोड़ों मंदिर हैं परन्तु उत्तराखंड स्थित पंच केदार सर्वोपरि हैं। भगवान शिव ने अपने महिषरूप अवतार में पांच अंग, पांच अलग-अलग स्थानों पर स्थापित किए थे। जिन्हें मुख्य केदारनाथ पीठ के अतिरिक्त चार और पीठों सहित पंच केदार कहा जाता है। इस लेख में अभी हम केवल केदारनाथ और पंच केदार की बात करेंगे।  बाकी जगहों की बातें बाद में दूसरे लेख में करेंगे। इस लेख में दिए गए सारे फोटो मेरे द्वारा लिए गए हैं जब मैं केदारनाथ की यात्रा पर गया था।  जो फोटो मेरी नहीं है मैंने उसके आगे लिख दिया है कि फोटो कहाँ से लिया गया है। 




केदारनाथ का पावन मंदिर


श्री केदारनाथ जी का मन्दिर पर्वतराज हिमालय की 'केदार' नामक चोटी पर अवस्थित है। इस चोटी की पूर्व दिशा में कल-कल करती बहती अलकनंदा नदी के परम पावन तट पर भगवान बद्री विशाल का पवित्र देवालय स्थित है तथा पश्चिम में पुण्य सलिला मन्दाकिनी नदी के किनारे भगवान श्री केदारनाथ विराजमान हैं। अलकनन्दा और मंदाकिनी दोनों नदियों का पवित्र संगम रुद्रप्रयाग में होता है और वहाँ से ये एक धारा बनकर पुन: देवप्रयाग में भागीरथी में मिल जाती है और यहाँ के बाद गंगा के नाम से जानी जाती है।

मंदिर के पीछे हिमालय की चोटियों पर जमी बर्फ 

इस मन्दिर में उत्तम प्रकार की कारीगरी की गई है। मन्दिर के ऊपर स्तम्भों में सहारे लकड़ी की छतरी निर्मित है, जिसके ऊपर तांबा मढ़ा गया है। मन्दिर का शिखर भी ताँबे का ही है, किन्तु उसके ऊपर सोने की पॉलिश की गयी है। मन्दिर के गर्भ गृह में केदारनाथ का स्वयंमभू ज्योतिर्लिंग है, जो अनगढ़ पत्थर का है। यह लिंगमूर्ति चार हाथ लम्बी तथा डेढ़ हाथ मोटी है, जिसका स्वरूप भैंसे की पीठ के समान दिखाई पड़ता है। इसके आस-पास सँकरी परिक्रमा बनी हुई है, जिसमें श्रद्धालु भक्तगण प्रदक्षिणा करते हैं। इस ज्योतिर्लिंग के सामने जल, फूल , बेल पत्र बिल्वपत्र आदि को चढ़ाया जाता है और इसके दूसरे भाग में यात्रीगण घी पोतते हैं। भक्त लोग इस लिंगमूर्ति को अपनी बाँहों में भरकर भगवान से मिलते भी हैं। मंदिर के बाहर नंदी जी विराजमान हैं।


भगवान श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर एक सुरम्य प्रकृति की शोभा है, उसके माँग का सिन्दूर है। नीचे मंदाकिनी का कल-कल निनाद, ऊपर पहाड़ों पर बर्फ़ की सफ़ेद चादरें, उस रात को छिटकती चन्द्रमा की शीतल चाँदनी, मंदिर के घंटा घड़ियाल का मधुर संगीत, वेदमन्त्रों के घोष और बीच-बीच में हर-हर महादेव तथा ‘नम: शिवाय’ की ध्वनि रोम-रोम में साक्षात शिवलोक का अनुभव कराती है।गौरीकुण्ड में हिमालय कन्या गौरी ने भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तप किया था। कठोर नियम वाली गौरी कमज़ोर-शरीर हो गयी थीं और सर्दी के कारण व्यथित थीं। वहाँ भगवान रुद्र ने अग्नि के रूप में प्रकट होकर जल को गर्म कर दिया था, जिसमें गौरी ने स्नान किया। आज भी तीर्थयात्री उस तप्तकुण्ड में स्नान करके श्री केदारनाथ के दर्शन के लिए जाते हैं।

मंदिर के पीछे हिमालय की चोटियों पर जमी बर्फ

केदारनाथ एक धार्मिक स्थल है पर्यटक स्थल नहीं 
केदारनाथ उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। यह स्थान समुद्रतल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर गढ़वाल हिमालय में स्थित है। केदारनाथ मंदिर को हिन्दुओं के पवित्रतम गंतव्यों (चार धामों) में से एक माना जाता है और बारहों ज्योतिर्लिंगों में से सबसे ऊँचा यहीं पर स्थित है। मन्दिर के पास से ही शानदार मन्दाकिनी नदी बहती है।

आप जब भी यहाँ आएं तो ये बात जरूर याद रखे कि केदारनाथ एक धार्मिक स्थल है पर्यटक स्थल नहीं।  यहाँ घूमने और मौज मस्ती करना एवं अपनी छुट्टियां बिताने नहीं  आएं बल्कि भक्ति की धारा में डूबने के लिए आये। गर्मियों के दौरान इस तीर्थस्थल पर पर्यटकों की भारी भीड़ भगवान शिव का आशीर्वाद लेने के लिये आते हैं। वैसे ये क्षेत्र एक पर्यटक स्थल नहीं एक धार्मिक स्थल है।  ये पावन भूमि है। यहाँ आने वाले लोग कभी ये न कहें कि छुटियां बिताने या घूमने जा रहे हैं।  यहाँ तो बस आईये तो भोलेनाथ की भक्ति में रम जाने के लिए आइये।  यहाँ बिलकुल बालक बन कर आइये और अपने आप को भोले शिव शंकर को सम्पर्पित मानकर आइये।


मंदिर के पीछे हिमालय की चोटियों पर जमी बर्फ 

केदारनाथ के मंदिर को देखकर यही लगता है कि जब इसे बनाया गया होगा तो कैसे बनाया गया होगा।  जिस जगह पर आज भी जान इतनी मुश्किल है।  जहाँ की धरती 6 महीने बर्फ से ढकी होती है वहां उस ज़माने में ये मंदिर कैसे बनाया गया होगा। खैर जो भी ये जगह अपने आप में सम्पूर्ण है।  यहाँ जो शांति , सुकून मिलता है वो कही और नहीं। यहाँ आकर वापस जाने का मन नहीं करता है।  बर्फ, से घिरे पहाड़, मन्दाकिनी नदी में बहता दूधिया रंग का जल, भगवान भोलेनाथ  अद्धभुत मंदिर, मंदिर में ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजते भोलेनाथ, यहाँ की धरती, यहाँ की जलवायु सब बरबस ही अपनी तरफ आकर्षित करते हैं।  यहाँ आने वाला हर प्राणी यहीं का होकर रह जाता है।

मन्दिर लगभग 6000 वर्ष पुराना है या कितना  पुराना है। इसे एक चतुर्भुजाकार आधार पर पत्थर की बड़ी-बड़ी पटियाओं से बनाया गया है। गर्भगृह की ओर ले जाती सीढ़ियों पर श्रृद्धालुओं को पाली भाषा के शिलालेख देखने को मिल जाते है। समुद्रतल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर स्थित होने के कारण चारों धामों में से यहाँ पहुँचना सबसे कठिन है। मन्दिर गर्मियों के दौरान केवल 6 महीने के लिये खुला रहता है। यह तीर्थस्थान सर्दियों के दौरान बन्द रहता है क्योंकि इस दौरान क्षेत्र में भारी बर्फबारी के कारण यहाँ की जलवायु प्रतिकूल हो जाती है। इस दौरान केदारनाथ के मूल निवासी भी निचले क्षेत्रों में चले जाते हैं और भगवान केदारनाथ की पालकी को को उखीमठ पहुँचा दिया जाता है और पुरे शीतकाल पूजा यही होती है। 6 महीने तक भगवान भोलेनाथ का दर्शन उखीमठ में ही किया जा सकता है। 

मंदिर के पीछे हिमालय की चोटियों पर जमी बर्फ

पालकी जब उखीमठ से केदारनाथ और जब केदारनाथ से उखीमठ ले जाई जाती है तो एक उत्सव का माहौल होता है।  हज़ारों लोग नाचते गाते, संगीत बजाते चलते हैं। साथ में भारतीय सेना की एक टुकड़ी होती हो जो संगीत बजाते हुए साथ में चलती है। वो एक ऐसा वक़्त होता है जब सब लोग सब कुछ छोड़कर सिर्फ उसमे राम जाते हैं.



केदारनाथ मन्दिर के समीप ही आदि गुरू शंकराचार्य की समाधि हैं।  शंकराचार्य एक प्रसिद्ध हिन्दू सन्त थे। चारों धामों की खोज के उपरान्त 32 वर्ष की आयु में उन्होनें इसी स्थान पर समाधि ली थी।

मंदिर के पीछे हिमालय की चोटियों पर जमी बर्फ और बरसने के लिए तैयार बादल 

सोनप्रयाग केदारनाथ से 21 किमी पहले है।  2013 के आपदा से पहले ये दुरी 19 किलोमीटर ही थी।  वासुकी ताल केदारनाथ से 8 किमी की दूरी पर और समुद्रतल से 4135 मी की ऊँचाई पर स्थित एक और प्रमुख स्थान है। यह झील हिमालय की पहाड़ियों से घिरा है जो इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं। शानदार चौखम्भा चोटी भी इसी झील के समीप स्थित है। वासुकी ताल तक पहुँच पाना बहुत ही मुश्किल है।  यहाँ पहुचने के एलिये चतुरंगी और वासुकी नामक दो हिमनदियों को पार करना पड़ता है जिसके लिये असीम सहनशक्ति की आवश्यकता पड़ती है।



सन् 1972 में स्थापित केदारनाथ वन्यजीव अभ्यारण्य अलकनन्दा नदी की घाटी में स्थित है। यह अभ्यारण्य बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है।  यहाँ  चीड़, ओक, भूर्ज, बगयल और ऐल्पाइन के घने पेड़ पाये जाते हैं। इस स्थान की विवध भौगोलिक स्थिति के कारण विभिन्न प्रकार के पौधे और जानवर यहाँ पाये जाते हैं। भारल, बिल्लियाँ, गोरल, भेड़िये, काले भालू, सफेद तेंदुये, साँभर, तहर और सेराव जैसे जानवरों को आसानी से देखा जा सकता है। अभ्यारण्य केदारनाथ कस्तूरी मृग जैसे विलुप्तप्राय जीवों का संरक्षण भी करता है। पक्षियों में रूचि रखने वाले लोग फ्लाईकैचर, मोनल, स्लेटी चित्ते वाले वार्बलर जैसे विभिन्न प्रकार के पक्षियों को देख सकते हैं। मोनल को उत्तराखंड का राष्ट्रीय पक्षी का दर्जा प्राप्त है।

मंदिर के पीछे बर्फ से ढकी हिमालय की बादलों के बीच से निहारते हुए 

1982 मी की ऊँचाई पर स्थित गौरीकुंड केदारनाथ का एक प्रमुख आकर्षण है। यहाँ पर एक प्राचीन मन्दिर है जो हिन्दू देवी पार्वती को समर्पित है। लोककथाओं को अनुसार यहीं पर देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिये तपस्या की थी। गैरीकुण्ड में एक गर्म पानी का सोता है जिसके पानी के न सिर्फ औषधीय गुण है। केदारनाथ की यात्रा असल में गौरकुंड से ही आरम्भ होती है।  यहाँ से 16 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई के बाद ही केदारनाथ पहुँचा जा सकता है।  पहले यह दूरी 14 किलोमीटर थी।  2013 में आयी आपदा में पूरा पैदल मार्ग बह गया।  उसके बाद नेहरू पर्वतारोहण संसथान ने नए रास्ते का निर्माण किया।  गौरीकुंड से केदारनाथ तक के आधे रस्ते को यानी गौकुण्ड से रामबाड़ा तक तो वही रास्ता है।  पर आधा रास्ता जो रामबाड़ा से केदारनाथ का था वो पूरी तरह नष्ट हो गया था जिसे फिर से बना पाना संभव नहीं सका। इसी  कारण नदी के दूसरे तरफ से रास्ता बनाया गया जो 7 किलोमीटर के बदले 9 किलोमीटर का हो गया और कुल दूरी 14 किलोमीटर से बढ़कर 16 किलोमीटर हो गयी।

सन 1880 के आसपास केदारनाथ मंदिर का चित्र (फोटो विकिपीडिया से )




केदारनाथ कैसे जाएं

केदारनाथ की यात्रा सही मायने में हरिद्वार या ऋषिकेश से आरंभ होती है। हरिद्वार देश के सभी बड़े और प्रमुख शहरो से रेल द्वारा जुड़ा हुआ है।  हरिद्वार तक आप ट्रेन से आ सकते है। यहाँ से आगे जाने के लिए आप चाहे तो टैक्सी बुक कर सकते हैं या बस से भी जा सकते हैं। हरिद्वार से सोनप्रयाग 235 किलोमाटर और सोनप्रयाग से गौरीकुंड 5 किलोमाटर आप सड़क मार्ग से किसी भी प्रकार की गाड़ी से जा सकते है।  इससे आगे का 16 किलोमाटर का रास्ता आपको पैदल ही चलना होगा आप पालकी या घोडा से जा सकते हैं।  रास्ता भी बहुत बहुत संभल कर चलने वाला है।

हरिद्वार या ऋषिकेश  में से आप जहाँ से भी यात्रा आरम्भ करें गौरीकुंड तक पहुँचने में 2 दिन  लें।  आप रात्रि विश्राम श्रीनगर (गढ़वाल) या रुद्रप्रयाग में करें और अगले दिन गौरीकुंड जाएं। यदि  आप एक दिन में गौरीकुंड चले जाते हैं तो इस पहाड़ी रास्ते पर आप इतना अधिक थक जायेगें कि अगले दिन प्रतिकूल मौसम वाले जहाज में गौरीकुंड से केदारनाथ की चढ़ाई चढ़ने में बहुत ही दिक्कत  महसूस करेंगे। अच्छा यही होगा  आप 2 दिन का समय लें ऐसा मेरा मानना है और मेरा अनुभव भी है।

हरिद्वार के रास्ते में आपको बहुत ऐसे स्थान मिलेंगे जहाँ आप रात में रुक सकते हैं।  पर इन जगहों में श्रीनगर और रुद्रप्रयाग पर लगभग आधी दुरी पर है।  आप चाहे तो गुप्तकाशी में भी रुक सकते हैं और यदि आप पहले दिन हरिद्वार या ऋषिकेश से गुप्तकाशी तक पहुँच जाते है तो अगले दिन गौरीकुंड में रुकने की कोई जरुरत नहीं है क्योंकि गुप्तकाशी से गौरीकुंड 1 से 1 :30 घंटे का ही रास्ता है। आप अपना सामान होटल या गेस्ट हाउस में लॉकर रूम में रखवाकर गुप्तकाशी से सुबह जल्दी 6 बजे तक निकल जाएँ और 8 बजे तक गौरीकुंड से चढ़ाई करना शुरू कर दें।  शाम तक केदारनाथ पहुंचे दर्शन करे और रात में केदारनाथ में रुकें।  यदि चाहे तो सुबह फिर से दर्शन करे और फिर वापस गौरीकुंड आ जाये और फिर गौरीकुंड से गुप्तकाशी आकर रात में रुकें।

यदि  आप पहले दिन श्रीनगर या रुदप्रयाग  में रुकते हैं तो अगले दिन आप सारा सामान साथ में ले जाये और गौरीकुंड तक पहुचे और रात में गौरीकुंड में ठहरें।  और फिर उसके अगले दिन सामान लॉकर रूम में रखकर सुबह 5 बजे चढ़ाई शुरू कर दें। केदारनाथ पहुँच कर दर्शन करे फिर रात में रुकें या वापस गौरीकुंड वापस आ जाये। पर मेरा तो ये मानना है कि यदि आप केदारनाथ जाते है तो भोलेनाथ की उस धरती पर एक रात अवश्य गुजारें।  एक बात और गौरीकुंड से केदारनाथ के रास्ते में 11 बजे के बाद मौसम ख़राब हो जाता है जो करीब 2 से 3 बजे तक ख़राब ही रहता है और ये कोई एक या दो दिन नहीं बल्कि हर दिन होता है।

बस से जाने के लिए आपको पहले रुद्रप्रयाग जाना होगा।  रुद्रप्रयाग से दो रास्ते हो जाते हैं।  एक रास्ता केदारनाथ और दूसरा बद्रीनाथ जाता है। हरिद्वार या ऋषिकेश से बस मिलती है जो देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग होते हुए चमोली जाती है और चमोली से गोपेश्वर तक जाती है।  केदानाथ जाने के लिए पहले तो रुद्रप्रयाग पहुंचना होता है। रुद्रप्रयाग से जीप या बस गुप्तकाशी या डायरेक्ट सोनप्रयाग तक जाती है। सोनप्रयाग से दूसरी जीप लेनी होती है जो गौरीकुंड तक जाती है।  गौरकुंड से केदारनाथ का रास्ता पैदल का है।  यहाँ से पैदल, पालकी या घोड़े पर जा सकते है।

हरिद्वार से केदारनाथ और फिर वापस हरिद्वार आने के लिए 4 दिन का समय  लगता है और जो केदारनाथ के बाद बद्रीनाथ चले जाते हैं उनको 7 दिन का समय लगता है। ऋषिकेश आगे पूरा रास्ता ही पहाड़ो में है।  इस रास्ते पर लोगो को उल्टियां भी आ जाती है। केदारनाथ के लिये निकटतम हवाईअड्डा 239 किमी की दूरी पर देहरादून का जॉली ग्रान्ट हवाईअड्डा है।

मंदिर के बाएं तरफ एक झरने का दृश्य 


केदारनाथ जाने का सबसे अच्छा समय

केदारनाथ आने के लिये मई से अक्टूबर के मध्य का समय आदर्श माना जाता है क्योंकि इस दौरान मौसम काफी सुखद रहता है। भारी बर्फबारी के कारण केदारनाथ के मूल निवासी भी सर्दियों में पलायन कर जाते हैं। वैसे भी ये मंदिर केवल गर्मियों ही खुलता है।  ये मई के पहले सप्ताह में खुलता है और नवम्बर के मध्य तक खुला  रहता है। हर साल मंदिर खुलने में और बंद होने में कुछ दिनों को फर्क होता है क्योकि इसके लिए मुर्हूत निकाला जाता है हिंदी पंचांग के अनुसार होता है।  कपाट  खुलने की तिथि अक्षय तृतीया और बंद होने की तिथि दीपावली के आसपास होती है।  बरसात के मौसम में जाना यहाँ ठीक नहीं होता क्योकि इस दौरान लैंड स्लाइडिंग का खतरा बढ़ जाता है और सड़के बंद हो जाती है।  यात्री यहाँ वहां फँस जाते हैं।


संचालन हेतु मंदिर समिति
श्री केदारनाथ और श्री बदरीनाथ के मन्दिरों के संचालन हेतु प्रदेश की सरकार ने मन्दिर-समिति बनाई है। मन्दिर-समिति के माध्यम से मन्दिरों का संचालन होता है तथा उनके आय-व्यय और सर्व प्रकार की व्यवस्था का दायित्व उसी पर होता है। आम जनता द्वारा मन्दिरों में पूजा, भोग-राग, आरती आदि करवाने हेतु मन्दिर-समिति ने दक्षिणा (शुल्क) निर्धारित किया है। दक्षिण भारत के रावल (ब्राह्मण) मन्दिर के प्रमुख पुजारी होते हैं। मन्दिर के सभी कर्मचारियों को समिति द्वारा वेतन दिया जाता है।


काले बादलों के बीच पहाड़ 

मंदिर में दर्शन का समय
  • केदारनाथ जी का मन्दिर आम दर्शनार्थियों के लिए प्रात: 7:00 बजे खुलता है।
  • दोपहर एक से दो बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है।
  • पुन: शाम 5 बजे जनता के दर्शन हेतु मन्दिर खोला जाता है।
  • पाँच मुख वाली भगवान शिव की प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके 7:30 बजे से 8:30 बजे तक नियमित आरती होती है।
  • रात्रि 8:30 बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर बन्द कर दिया जाता है।
  • शीतकाल में केदारघाटी बर्फ़ से ढँक जाती है। यद्यपि केदारनाथ-मन्दिर के खोलने और बन्द करने का मुहूर्त निकाला जाता है, किन्तु यह सामान्यत: नवम्बर माह की 15 तारीख से पूर्व बन्द हो जाता है और छ: माह बाद अर्थात वैशाख महीने में कपाट खुलता है।
  • ऐसी स्थिति में केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को ‘उखीमठ’ में लाया जाता हैं। इसी प्रतिमा की पूजा यहाँ भी रावल जी करते हैं।
  • केदारनाथ में जनता शुल्क जमा कराकर रसीद प्राप्त करती है और उसके अनुसार ही वह मन्दिर की पूजा-आरती कराती है अथवा भोग-प्रसाद ग्रहण करती है।


बर्फ से ढकी चोटियां सूरज की पहली किरण पड़ने से चमकती हुई 








पंच केदार


केदारनाथ की जानकारी विस्तार से पढ़ने के बाद आइए अब जानते है भगवान शिव के पंच केदारों के बारे में :

1 . केदारनाथ
2. मध्यमेश्वर
3. तुंगनाथ
4. रुद्रनाथ
5. कल्पेश्वर



1. केदारनाथ
यह मुख्य केदारपीठ है। इसे पंच केदार में से प्रथम कहा जाता है। पुराणों के अनुसार, महाभारत का युद्ध खत्म होने पर अपने ही कुल के लोगों का वध करने के पापों का प्रायश्चित करने के लिए वेदव्यास जी की आज्ञा से पांडवों ने यहीं पर भगवान शिव की उपासना की थी। तब भगवान शिव ने उनकी तपस्या से खुश होकर महिष अर्थात बैल रूप में दर्शन दिये थे और उन्हें पापों से मुक्त किया था। तब से महिषरूपधारी भगवान शिव का पृष्ठभाग यहां शिलारूप में स्थित है।



कब जाएं : केदारनाथ जाने के लिए अप्रैल से अक्टूबर का समय सबसे अच्छा माना जाता है और इतने ही दिन मंदिर के कपाट भी खुलते हैं। इस बीच के बारीश के दिनों में यात्रा नहीं करना चाहिए।


कैसे जाएं : केदारनाथ जाने के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन हरिद्वार या ऋषिकेश है। यहाँ से आगे का रास्ता सड़क मार्ग से तय किया जाता है। केदारनाथ की चढ़ाई बहुत कठिन मानी जाती है, कई लोग पैदल भी जाते हैं। केदारनाथ के लिए नजदीकी एयरपोर्ट देहरादून है।

केदारनाथ के आस-पास के घूमने के स्थान : 

उखीमठ : उखीमठ रुद्रप्रयाग जिले में है। यह स्थान समुद्री सतह से 1317 मी. की ऊचाई पर स्थित है। यहां पर देवी उषा, भगवान शिव के मंदिर है।

गंगोत्री ग्लेशियर : उत्तराखंड स्थित गंगोत्री ग्लेशियर लगभग 28 कि.मी लम्बा और 4 कि.मी चौड़ा है। गंगोत्री ग्लेशियर उत्तर पश्चिम दिशा में मोटे तौर पर बहती है और एक गाय के मुंह समान स्थान पर मुड़ जाती हैं।


केदारनाथ से 2 किलोमाटर नीचे शिलाजीत का पहाड़ 

2. मध्यमेश्वर 
इन्हें मनमहेश्वर या मदनमहेश्वर भी कहा जाता हैं। इन्हें पंच केदार में दूसरा माना जाता है। यह ऊषीमठ से 18 मील दूरी पर है। यहां महिषरूपधारी भगवान शिव की नाभि लिंग रूप में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने अपनी मधुचंद्र रात्रि यही पर मनाई थी। यहां के जल की कुछ बूंदे ही मोक्ष के लिए पर्याप्त मानी जाती है।

कब जाएं : मध्यमेश्वर मंदिर जाने के लिए सबसे अच्छा समय गर्मी का माना जाता है। मुख्यतह यहां की यात्रा मई से अक्टूबर के बीच की जाती है।

कैसे जाएं : उखीमठ से सबसे पास का हरिद्वार या ऋषिकेश रेल्वे स्टेशन है। उखीमठ से उनीअना जाकर, वहां से मध्यमेश्वर की यात्रा की जाती है। सड़क मार्ग द्वारा हरिद्वार या ऋषिकेश से बस द्वारा जा सकते हैं।  नजदीकी एयरपोर्ट देहरादून है।

मध्यमेश्वर के आस-पास के घूमने के स्थान :

बूढ़ा मध्यमेश्वर : मध्यमेश्वर से 2 कि.मी. दूर बूढ़ा मध्यमेश्वर नामक दर्शनीय स्थल है।

कंचनी ताल : मध्यमेश्वर से 16 कि.मी. दूर कंचनी ताल नामक झील है। यह झील समुद्री सतह से 4200 मी. की ऊचाई पर स्थित हैं।
गउन्धर : यह मध्यमेश्वर गंगा और मरकंगा गंगा का संगम स्थल है।




बर्फ से ढके पहाड़ और 2013 में आये आपदा की निशान 



3. तुंगनाथ
इसे पंच केदार का तीसरा माना जाता हैं। केदारनाथ के बद्रीनाथ जाते समय रास्ते में यह क्षेत्र पड़ता है। यहां पर भगवान शिव की भुजा शिला रूप में स्थित है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए स्वयं पांडवों ने करवाया था। तुंगनाथ शिखर की चढ़ाई उत्तराखंड की यात्रा की सबसे ऊंची चढ़ाई मानी जाती है।

कब जाएं : तुंगनाथ जाने के लिए सबसे अच्छा समय मार्च से अक्टूबर के बीच का माना जाता है।

कैसे जाएं : 
रेल यात्रा : तुंगनाथ के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन हरिद्वार है, जो लगभग सभी बड़े स्टेशनों से जुड़ा हुआ है। सड़क यात्रा : तुंगनाथ पहुंचने के लिए हरिद्वार से ही सड़क मार्ग का प्रयाग भी किया जा सकता है। नजदीकी एयरपोर्ट देहरादून है।


तुंगनाथ के आस-पास के घूमने के स्थान :

चन्द्रशिला शिखर : तुंगनाथ से 2 कि.मी की ऊचाई पर चन्द्रशिला शिखर स्थित है। यह बहुत ही सुंदर और दर्शनीय पहाड़ी इलाका है।


गुप्तकाशी : रुद्रप्रयाग जिले से 1319 मी. की ऊचाई पर गुप्तकाशी नामक स्थान है। जहां पर भगवान शिव का विश्वनाथ नामक मंदिर स्थित है।


सुबह का एक दृश्य



4. रुद्रनाथ
यह पंच केदार में चौथे हैं। यहां पर महिषरूपधारी भगवान शिव का मुख स्थित हैं। तुंगनाथ से रुद्रनाथ-शिखर दिखाई देता है पर यह एक गुफा में स्थित होने के कारण यहां पहुंचने का मार्ग बेदह दुर्गम है। यहां पंहुचने का एक रास्ता हेलंग (कुम्हारचट्टी) से भी होकर जाता है।


कब जाएं : रुद्रनाथ जाने के लिए सबसे अच्छा समय गर्मी और वंसत का मौसम माना जाता है।

कैसे जाएं : रेल मार्ग : ऋषिकेश या हरिद्वार तक रेल माध्यम से पहुंचा जा सकता है, उसके बाद सड़क मार्ग की मदद से कल्पेश्वर जा सकते है। सड़क मार्ग : रुद्रनाथ जाने के लिए ऋषिकेश, हरिद्वार, देहरादून से कई बसे चलती हैं। नजदीकी एयरपोर्ट देहरादून है।

पहाड़ों पर पड़ती हुई धुप 



5. कल्पेश्वर
यह पंच केदार का पांचवा क्षेत्र कहा जाता है। यहां पर महिषरूपधारी भगवान शिव की जटाओं की पूजा की जाती है। अलखनन्दा पुल से 6 मील पार जाने पर यह स्थान आता है। इस स्थान को उसगम के नाम से भी जाना जाता है। यहां के गर्भगृह का रास्ता एक प्राकृतिक गुफा से होकर जाता है।


कब जाएं : कल्पेश्वर जाने के लिए गर्मी के मौसम में मार्च से जून के बीच और वंसत के मौसम में जुलाई से अगस्त का महीना सबसे अच्छा माना जाता है।

कैसे जाएं : रेल मार्ग  : ऋषिकेश या हरिद्वार तक रेल माध्यम से पहुंचा जा सकता है, उसके बाद सड़क मार्ग की मदद से कल्पेश्वर जा सकते है। सड़क मार्ग : जोशीमठ, ऋषिकेश से सड़क मार्ग से आसानी से कल्पेश्वर पहुंचा जा सकता है।

कल्पेश्वर के आस-पास के घूमने के स्थान :
जोशीमठ : कल्पेश्वर से कुछ दूरी पर जोशीमठ नामक स्थान है। यहां से चार धाम तीर्थ के लिए भी रास्ता जाता है।


गौरीकुंड से केदारनाथ के रास्ते में रूद्र फॉल 


2013 की आपदा 

केदारनाथ में  मन्दाकिनी की कल-कल धाराएं भगवान शिव के कदमों को चूमकर यहां आगे बढ़ती हैं लेकिन 16 जून 2013 को केदारनाथ के चारों तरफ मौजूद पर्वत शृंखलाओं से खौफनाक सैलाब की आहट सुनाई पड़ी। बादल फटने से हुई जबरदस्त बारिश का कहर केदारनाथ पर टूटा। हाल ये है कि केदारनाथ के पास रामबाड़ा बाज़ार पूरी तरह बह गया। आपदा में बच गए कहना है कि केदारनाथ मंदिर का मुख्य द्वार भी पानी के तेज बहाव की चपेट में आने से बह गया। किसी का कहना है कि लोग सो रहे थे, कुछ पूजा कर रहे थे, घूम रहे थे तभी अचानक बहुत भारी मात्रा में पीछे से पत्थर, मलबा, पानी आया। ये इतनी तेजी से आया कि कोई कुछ समझ पाता उससे पहले ही वे मलबे की चपेट में आ गए। ये मलबा बीच-बाज़ार से गुजरा। सिर्फ मंदिर दिख रहा था बाकी पीछे के होटल, लॉज, मंदिर का मुख्य द्वार सब पानी में बह गए। कई लोग मलबे के नीचे दबे और उनके बचने की कोई संभावना नहीं बच पायी। केदारनाथ एक तरह से श्मशान घाट में बदल गया था। जब सैलाब आया तो एक बड़ा पत्थर आकर मंदिर के पीछे लग गया, इससे मंदिर तो सुरक्षित बच गया, लेकिन आगे-पीछे-दाएं-बाएं कुछ भी नहीं बचा। सैलाब का सितम खत्म हुआ तो तबाही और विनाश के बीच बस मंदिर ही बचा रहा। केदारनाथ के बाद गौरीकुंड में भी भारी तबाही हुई है। केदारनाथ, गौरीकुंड और रामबाड़ा में जान-माल का कितना नुकसान हुआ है। इसका अंदाजा भले ही अभी नहीं लग पाया हो लेकिन यहां भारी तबाही हुई है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। 

2013 के आपदा में मंदिर की रक्षा करने वाला शिला 

यही वो पत्थर है जिसने आपदा में मंदिर की रक्षा की।  अब इस पत्थर की भी पूजा होने लगी है।  आपदा के बाद पहाड़ से आयी मिटटी से यहाँ बनी धर्मशालाएं, पुरोहितों के मकान , दुकान सब बह गए।  जो मकान 2 मंजिल का था उसका एक मंज़िल मलबे के अंदर समां गया।  आपदा में वहां कुछ भी नहीं बच पाया। आज 3 साल बाद भी आपदा में मारे गए लोगो के कंकाल पुरे केदारघाटी में मिलते रहते हैं। आपदा में मारे गए कुछ लोगों का तो आज तक पता नहीं चल पाया।  पूरा गौरीकुंड से केदारनाथ तक जो कुछ भी मन्दाकिनी नदी के रौद्र रूप के सामने जो कुछ भी आया उसे वो बहा ले गयी। मंदिर का चबूतरा पहले जमीन से 10 फ़ीट की ऊंचाई पर था पर आपकड़ा के बाद इतना मलबा आया कि जमीन से 10 फ़ीट ऊँचा चबूतरा मलबे में समा गया और इतना ही नहीं चबूतरे के ऊपर बना नंदी की मूर्ति जो चबूतरे से 5 फ़ीट ऊँचा है वो भी मलबे में समा गया।  तबाही का आलम आप इस फोटो को देखकर ही लगा लेगें।


 आपदा के बाद केदारनाथ का मंदिर (फोटो इन्टरनेट से )


आपदा के कारण 
इतने बड़े धार्मिक स्थल वो भी शिवालय , शिव का घर, शिव के धाम में इतनी बड़ी आपदा क्यों आयी इसके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता।  पर जितनी मुंह उतनी बातें। कुछ लोग इस आपदा के धार्मिक और कुछ ज्योतिषीय कारण बताते हैं।  अब चाहे जो भी कारण हो मुझे तो सभी उचित लगते हैं।  

केदारनाथ में आयी इस तबाही के बाद लोगों के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। आखिर केदारनाथ में पहले भी बारिश होती थी, नदियां उफनती थी और पहाड़ भी गिरते थे। लेकिन कभी भी केदारनाथ जी इस तरह के विनाश का शिकार नहीं बने। प्रकृति की इस विनाश लीला को देखकर कुछ लोगों की आस्था की नींव हिल गई है। जबकि कुछ आस्थावान ऐसे भी हैं जिनकी आस्था की नींव और मजबूत हो गयी है। ऐसे ही आस्थावान श्रद्धालुओं की नजर में केदारनाथ पर आई आपदा के पीछे कई धार्मिक कारण हैं।


तबाही के निशान (फोटो इन्टरनेट से )

धारी माता की नाराजगी
 सोशल मीडिया में इसके कारणों पर जो चर्चा चल रही है उसके अनुसार इस विनाश का सबसे पहला और बड़ा कारण धारी माता का विस्थापन माना जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता उमा भरती ने भी एक सम्मेलन में इस बात को स्वीकार किया कि अगर धारी माता का मंदिर विस्थापित नहीं किया जाता तो केदारनाथ में प्रलय नहीं आती। धारी देवी का मंदिर उत्तराखंड के श्रीनगर से 15 किलोमीटर दूर कालियासुर नामक स्थान में विराजमान था। धारी देवी को काली का रूप माना जाता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार उत्तराखंड के 26 शक्तिपीठों में धारी माता भी एक हैं। बांध निर्माण के लिए 16 जून की शाम में 6 बजे शाम में धारी देवी की मूर्ति को यहां से विस्थापित कर दिया गया। इसके ठीक दो घंटे के बाद केदारघाटी में तबाही की शुरूआत हो गयी।

अशुभ मूहुर्त 
आमतौर पर चार धार की यात्रा की शुरूआत अक्षय तृतीया के दिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट खुलने से होती है। इस वर्ष 12 मई को दोपहर बाद अक्षय तृतीया शुरू हो चुकी थी और 13 तारीख को 12 बजकर 24 मिनट तक अक्षय तृतीया का शुभ मुहूर्त था। लेकिन गंगोत्री और यमुनोत्री के कपाट को इस शुभ मुहूर्त के बीत जाने के बाद खोला गया। खास बात ये हुई कि जिस मुहूर्त में यात्रा शुरू हुई वह पितृ पूजन मुहूर्त था। इस मुहूर्त में देवी-देवता की पूजा एवं कोई भी शुभ काम वर्जित माना जाता है। इसलिए अशुभ मुहूर्त को भी विनाश का कारण माना जा रहा है।

तीर्थों का अपमान 
बहुत से श्रद्धालु ऐसा मानते हैं कि लोगों में तीर्थों के प्रति आस्था की कमी के चलते विनाश हुआ। यहां लोग तीर्थ करने के साथ साथ धुट्टियां बिताने और पिकनिक मनाने के लिए आने लगे थे। ऐसे लोगों में भक्ति कम दिखावा ज्यादा होता है। धनवान और रसूखदार व्यक्तियों के लिए तीर्थस्थानों पर विशेष पूजा और दर्शन की व्यवस्था है, जबकि सामन्य लोग लंबी कतार में खड़े होकर अपनी बारी आने का इंतजार करते रहते हैं। तीर्थों में हो रहे इस भेद-भाव से केदारनाथ धाम भी वंचित नहीं रहा।

मैली होती गंगा का गुस्सा
मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी मिलकर गंगा बनती है। कई श्रद्धालुओं का विश्वास है कि गंगा अपने मैले होते स्वरूप और अपमान के चलते इतने रौद्र रूप में आ गई। कहा जाता है कि गंगा धरती पर आना ही नहीं चाहती थी लेकिन भगवान शिव के दबाव में आकर उन्हें धरती पर उतरना पड़ा। भगवान शिव ने गंगा की मर्यादा और पवित्रता को बनाए रखने का विश्वास दिलाया था। लेकिन बांध बनाकर और गंदला करके हो रहा लगातार अपमान गंगा को सहन नहीं हो पाया। 

दैनिक जागरण के 22 जून 2013 में प्रकाशित एक रिपोर्ट

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16 comments:

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  2. "यहाँ तो बस आईये तो भोलेनाथ की भक्ति में रम जाने के लिए आइये। यहाँ बिलकुल बालक बन कर आइये और अपने आप को भोले शिव शंकर को सम्पर्पित मानकर आइये।"

    बेहतरीन लाइनें भाई जी ...
    नमन

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अंशुमन जी।
      हम तो बस यही कहेंगेे

      महादेव तेरी महिमा झोंके पवन के गाए
      द्वारे पे बैठे नंदी बस तेरे ही गुण है गाए

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  3. बहुत बहुत धन्यवाद जी, अवश्य आपको बताते हैं।

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  4. https://himboyps.wordpress.comJune 16, 2019 at 8:19 PM

    आपके द्वारा दी गई जानकारी काफी काम की है

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको

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  8. अच्छी जानकारी दी है पढ़ के बहुत अच्छा लगा उत्तराखंड में पंच केदार

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