Saturday, May 6, 2017

बैजनाथ महादेव से पठानकोट (Baijnath to Pathankot)

बैजनाथ महादेव से पठानकोट 
(Baijnath to Pathankot)




इतने दिन से घूमते हुए अब वो घड़ी आ गयी जब हमें वापस जाना होगा। ज्वालादेवी, धर्मशाला, मैक्लोडगंज, भागसू नाग वाटर फॉल, चिंतपूर्णी देवी और बैजनाथ महादेव की यात्रा पूरी करके और कुछ खट्टी-मीठी यादें लेकर और कुछ को अपने कैमरे में कैद करके बुझे मन से वापसी की राह पकड़नी थी। बैजनाथ मंदिर देखने के बाद वहां से बस से हम पपरोला आ चुके थे। 

पपरोला बस स्टैंड से रेलवे स्टेशन की दूरी महज 100 मीटर ही है। मैं स्टेशन पंहुचा तो यहाँ का नज़ारा ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी निर्जन प्रदेश में आ गए। स्टेशन के बाहर-भीतर और यहाँ तक प्लेटफार्म पर भी कोई मानव नहीं दिख रहा था, अरे मानव तो क्या कोई और जंतु भी दिख जाता तो लगता कि कुछ दिखा। अगर कुछ दिख रहा था यार्ड में खड़ी ट्रेन की 2 इंजन और ट्रेनें। मन तो कर रहा था कि स्टेशन के बोर्ड पर जो "बैजनाथ पपरोला" लिखा हुआ है उसे मिटाकर "निर्जन पपरोला" कर दें, पर ऐसा करना सरकारी संपत्ति का नुकसान करना होता, इसलिए नहीं लिखे। 

अभी 1 बज रहे थे और ट्रेन 2 बजे के बाद जाने वाली थी। मतलब मेरे पास स्टेशन का मुआयना करने के लिए पूरे एक घंटे का समय था। बस लग गए स्टेशन का मुआयना करने। करीब आधे घंटे में हमने स्टेशन का कोना कोना ठीक वैसे ही छान मारा जैसे पानी की तलाश में रेगिस्तान में हिरन। अब तक स्टेशन पर इक्का-दुक्का लोग आने लगे थे। लोगों का आता देखकर मैं टिकट काउंटर पर जाकर सबसे पहले खड़ा हो गया। देखा देखी कुछ और लोग भी मेरे पीछे खड़े हो गए। जल्दी ही काउंटर खुल गया और मैं पठानकोट का एक टिकट लेकर प्लेटफार्म पर आ गया। इतने में एक जोगिन्दर नगर की तरफ से मेंटेनन्स के लिए एक ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म पर आकर लगी। कुछ देर बाद पठानकोट वाली ट्रेन भी यार्ड से निकालकर प्लेटफार्म पर लगा दी गयी। मैं ट्रेन में खिड़की के साइड वाली एक सीट पर बैठ गया। पठानकोट से आते समय जो गलती मुझसे हुई थी उस गलती को मैं यहाँ दुहराना नहीं चाहता था और इस बार जो सीट हमने ली उससे पूरे रास्ते मुझे बर्फ से ढँकी हिमालय की चोटियां दिखती रहेगी। ट्रेन का टाइम तो 2 :10 था पर शायद इंजन और डब्बे को जोड़ने वाले जगह पर कुछ खराबी थी इसलिए ट्रेन करीब 30 मिनट देर से चली। जितने भी स्टेशन आये सभी स्टेशनों पर ड्राइवर और गार्ड बार बार उसे देखने के लिए आते रहे। मतलब साफ था कि आप मरो चाहे जियो हम तो ख़राब गाड़ी को भी चलाएंगे क्योकि हम हैं "इंडियन रेलवे"



खैर जैसे भी हो जितने देर ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी रही उतने देर में ट्रेन पूरी तरह से भर चुकी थी। 4 दिन के सफर में मुझे बस एक चीज़ की कमी महसूस हो रही थे वो ये कि जब तक मैं सीट पर बैठने के लिए थोड़ी बहुत तू-तू मैं-मैं, ये तेरी सीट, ये मेरी सीट न कर लूँ तब तक सफर अधूरा सा लगता है। मेरी ये तमन्ना यहाँ तो पूरी होती दिख नहीं रही थी। लेकिन इस सबके वाबजूद मेरे इस ख्वाब को पूरा करने की एक उम्मीद बची हुई थी और वो ये थी कि कल पठानकोट से दिल्ली वाली यात्रा। 

ट्रेन 2 :45 पर पपरोला से चली। पूरे रास्ते दाहिने साइड हिमालय की हिमाच्छादित चोटिया दिख रही थी। यहाँ एक बार और थी जो गौर करने वाली थी। जब ट्रेन पठानकोट से पपरोला की तरफ आती है तो चढ़ाई होती है और पठानकोट की तरफ जाते हुए ट्रेन ढलान पर चलती है। ट्रेन जहाँ जहाँ रुकती उतरने वाले से ज्यादा चढ़ने वाले ही होते। चढ़ने वालो की भीड़ कितनी थे ये आपको आगे फोटो में दिखाएंगे। पालमपुर आते आते ट्रेन में खड़े होने तक की भी जगह नहीं बची थी। सबसे ज्यादा चढ़ने वालों की भीड़ "काँगड़ा मंदिर" स्टेशन पर थी। इस स्टेशन पर एक बहुत ही अजीब बात मेरे साथ भी हुई। मैं जिस सीट पर बैठा हुआ हुआ उस पर मेरे बगल में की सीट पर एक महिला बैठी हुई थी और सामने वाले दोनों सीटों पर भी दो महिलाएं ही बैठी थी।  तीनों महिलाएं एक दूसरे के परिचित थीं।  एक और महिला जो कुछ आगे या पीछे पता नहीं कहाँ बैठी हुई थी वो भी वहीं आ गई। पहले तो वो कुछ देर खड़ी होकर उनसे बातें की उसके बाद मुझे बोली की आप मुझे खिड़की वाली सीट दे दो और आप मेरी सीट पर जाकर बैठ जाओ। मैं भी तुरंत जवाब देने वाला आदमी पीछे कहाँ रहने वाला था। छूटते ही मैंने जवाब दिया, "अच्छा मैं ऐसा क्यों करूँ कि अपनी खिड़की वाली सीट आपको दे दूँ और आपकी सीट पर मैं चला जाऊँ।" इस बात पर उन्होंने कहा कि बिना खिड़की वाली सीट पर बैठने से मुझे उलटी होती है। मैंने भी उनको वैसा ही जवाब दिया कि पहली बार किसी से सुन रहा हूँ कि ट्रेन में उलटी होती है और वो भी तब जब खिड़की वाली सीट न मिली हो तब। और फिर भी अगर ऐसा ही है तो आप अपने जान-पहचान वाली जो है उनसे सीट की अदला-बदली क्यों नहीं कर लेतीं। मेरी इन बातों से चिढ़कर वो फिर से अपने सीट पर जाकर बैठ गयी और वो पठानकोट तक उसी सीट पर आई और एक बार भी उलटी नहीं आयी। अब मैं तो इस बात पर यही कहूँगा कि वाह रे ज़माना सीट पाने के लिए लोग क्या क्या बहाने नहीं लगाते। ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ पटना से दिल्ली आते हुए सम्पूर्ण क्रांति एक्सप्रेस में हुआ था, तब वो महाशय ने ये कहकर मुझसे निचली बर्थ मांगी थी कि उनको बार बार टॉयलेट जाना पड़ता है और वो पूरे रात में एक बार भी टॉयलेट नहीं गए थे। 

"काँगड़ा मंदिर" स्टेशन के बाद ट्रेन काँगड़ा और कॉपरलहड़ होते हुए ज्वालामुखी रोड पहुंची। यहाँ तो भीड़ की हद ही हो गयी थी। इतने लोग थे कि इस ट्रेन में तो क्या कोई एक और पूरी खाली ट्रेन लाई जाती तो भी उसमें इतने लोग नहीं आ पाते। यहाँ कुछ लोग तो किसी तरह ट्रेन में चढ़ गए और कुछ लोग कोशिश करके भी चढ़ने में कामयाब नहीं हो सके। जो चढ़ गए वो समझिये बहुत बड़ी जंग जीत लिए थे और जो नहीं चढ़ पाए अपने को हारा और ठगा हुआ महसूस करते हुए मन मसोस कर रह गए। 


ज्वालामुखी रोड के बाद थोड़ा थोड़ा अँधेरा होने लगा था। कुछ आगे जाते जाते पूरी तरह अँधेरा हो चुका था। अब ट्रेन से कोई भी तस्वीर ले पाना संभव नहीं था। अतः मैं भी कैमरा बंद करके बैग में रखा और खिड़की के सहारे अपना सिर टिका कर सोने की कोशिश करने लगा। जब भी किसी स्टेशन पर ट्रेन रूकती तो बस आँखे खोल कर देख लेता कि कौन सा स्टेशन है और फिर वैसे ही खिड़की से सिर टिका लेता। जैसे जैसे रात बढ़ रही थी वैसे वैसे ठण्ड भी बढ़ रही थी। इस समय ट्रेन के अंदर का जो दृश्य था उसे देखकर ऐसा लग था कि यहाँ कोई है ही नहीं। सब बिलकुल शांत और निःशब्द थे। ट्रेन के अंदर कोई आवाज़ नहीं और इस सन्नाटे में पहाड़ों के बीच से गुजरती हुई ट्रेन की आवाज़ एक अलग ही अहसास पैदा कर रहा था जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। ट्रेन के बहार भी ज्यादा कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था अगर कुछ दिख रहा था वो केवल पहाड़ और जंगल थे, उसके ऊपर से घनी अँधेरी रात। वैसे तो आप कहीं ट्रेन से जा रहे हो तो बाहर दूर जो दीपक, बल्ब जलते हुए दीखते है उसको देखकर लगता है हम कहीं जा तो रहे है। पर यहाँ तो कुछ दिखता ही नहीं, बाहर अगर कुछ है भी तो बस घना अँधेरा। 

वैसे इस रूट पर चलते हुए एक बात और है जो गौर करने वाली है और वो है स्टेशनों के नाम और स्टेशन की बनावट। इस रूट पर पड़ने वाले स्टेशनों के नाम भी कुछ अलग तरह के हैं। नाम तो छोड़िए स्टेशन की जो बनावट है वो भी अंग्रेजों के समय वाला है, पर जैसा भी है बहुत ही खूबसूरत और लाजवाब है। वैसे भी ये लाइन यूनेस्को द्वारा संरक्षित होने के कारण इसे इसी हालत में रखना ही है।

करीब 9 :30 बजे ट्रेन पठानकोट स्टेशन पहुँच गयी। पठानकोट स्टेशन पर पहले से हमने पहले से ही रिटायरिंग रूम बुक करवा रखा था। ट्रेन से उतरकर हम सीधे पूछताछ वाली खिड़की पर पहुंचे और रिटायरिंग रूम के बारे में पूछा। रिटायरिंग रूम प्लेटफार्म नंबर 1 पर ग्राउंड फ्लोर और फर्स्ट फ्लोर पर है। मेरा कमरा नंबर 6 था, जो पहली मंज़िल पर था। नीचे ही अटेंडेंट मिल गया उसने कमरे की चाभी दी और ये कह गया कि सुबह जब आप जाने लगे और मैं नहीं मिला तो चाभी (एक जगह दिखाते हुए) यहाँ रख दीजियेगा। कमरे का ताला खोलकर जैसे ही मैं अंदर घुसा तो देखकर दंग रह गया।  केवल 140 रूपये में इतना बड़ा कमरा कि इसमें एक बारात ठहर सकता था। उसमे 2 बेड लगे हुए थे वो भी डबल, 3 तकिये और 3 कम्बल, 4 कुर्सियां, एक टेबल, बड़ी सी आलमारी।  खैर कितना बड़ा भी कमरा हो और कुछ भी हो मुझे क्या करना था, बस रात गुजारनी थी और सुबह चले जाना था। 

इस बात पर अल्ताफ राजा का वो गाना याद आ जाता है : "तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्या निभाओगे, सुबह पहली गाड़ी से तुम तो लौट जाओगे" और होना भी वही था सुबह वाली गाड़ी से ही मुझे जाना था।  कल पठानकोट से दिल्ली के लिए मेरी ट्रेन 7 बजे सुबह ही थी। 

अब कुछ अपनी बात करता हूँ। सुबह से कुछ नहीं खाने के कारण भूख देवता भी मुझ पर पूरे तरह हावी हो चुके थे। आज पुरे दिन केवल एक कप चाय और दोपहर में 4 केले खाकर पूरे दिन टिके हुए थे पर अब ये असहनीय हो रही थी। बैग में देखा तो बैग में कंचन (पत्नी) का दिया हुआ बिस्कुट के 2 पैकेट और आदित्या (बेटा) का दिया हुआ कुछ टॉफियां पड़ी हुई थी। उसे बैग में वैसे ही छोड़ दिया कि कल दिन में ट्रेन पर काम आएगा और यहाँ तो किसी ढाबे में खाना खाकर रात काट ही लेंगे। 

स्टेशन से बाहर आया एक ढाबे में 4 रोटियां और आलू गोभी की सब्ज़ी खाया और फिर कमरे में आकर सो गया।


अब इस यात्रा का अंतिम भाग "पठानकोट से दिल्ली" वाला भाग आगे पोस्ट में। तब तक तक के लिए आज्ञा दीजिये। अगर कोई गलती दिखे तो कमेंट करके बताइयेगा जरूर। बस अभी तो हम सोने जा रहे है तभी तो कल पठानकोट से दिल्ली वाली ट्रेन में बैठेंगे और उसके बारे में लिखेंगे। बस जल्दी ही मिलेंगे। 





अब कुछ फोटो हो जाये :





बैजनाथ पपरोला स्टेशन के अंदर का दृश्य
बैजनाथ पपरोला स्टेशन के बाहर का दृश्य

यार्ड में खड़ी ट्रेन और मालगाड़ी के डिब्बे 

जरा एक फोटो मैं भी  लूँ 

स्टेशन के प्लेटफार्म बना साइनबोर्ड, समुद्र से ऊंचाई 954 मीटर दर्शाता हुआ

मैना

अब तक  इसे पहचान ही गए होंगे 

काँगड़ा घाटी ट्रेन के बारे में जानकारी वाला सूचनापट्ट 

शेड में खड़ी इंजन

पेड़ों के झुरमुट से झांकता हिमालय ही धौलाधार चोटी

आप ही बताएं पेड़ ऊँचा या हिमालय

पालमपुर स्टेशन 

बाबा नीचे रहो क्योंकि ट्रेन  अब जगह नहीं है 

हरे भरे जंगल 

चामुंडा मार्ग स्टेशन 

नगरोटा स्टेशन

नगरोटा सूरियां स्टेशन (नगरोटा और नगरोटा सूरियां के बीच की दूरी 70 किलोमटेर है)

समलती स्टेशन

नदी, पहाड़ और जंगल

कांगड़ा मंदिर स्टेशन

एक सुरंग से गुजरती हुई ट्रेन

रेल की पटरी पर बन्दर 

गुलेर स्टेशन

नंदपुर भटौली

जवाँवाला शहर स्टेशन

पठानकोट जंक्शन (बैजनाथ पपरोला से 625 मीटर नीचे )

हिमालय की  चोटियां बैजनाथ से 

हिमालय की चोटियां काँगड़ा टेम्पल से 

हसीन वादियां 

बल्लेदा पीर लाड़थ स्टेशन


12 comments:

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    1. आपने पढ़ा बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. खिड़की वाली सीट के किये संघर्ष आम बात है, और लोअर बर्थ वाला भी...लोअर बर्थ की जरूरत कुछ अशक्त यात्रियों को हो भी जाती है, लेकिन खिड़की वाली सीट का मामला चालाकी वाला ही लगता है। मैंने भी बहुत बार ऐसे मामले झेले हैं।
    ये पोस्ट जो आपकी अब तक कि आखिरी है....धारा प्रवाह ही लग रही है...बस कुछ स्थानों पर कुछ वाक्य दुबारा लिखे गए है जैसे कि...बहुत भूख लग रही थी...आदि।
    अब आपकी सबसे पहली वाली पोस्ट देखता हूँ...

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    1. हाँ ये पोस्ट मेरी इस यात्रा की अंतिम से पहला पोस्ट है अब लास्ट पोस्ट है पठानकोट से दिल्ली

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  3. बहुत बढ़िया और धारा प्रवाह लिखा है आपने...

    धीमे धीमे ब्लॉग्गिंग जम रहे है आप...

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    1. धन्यवाद , अभी तो मेरी शुरुआत है, और अगर ऐसे ही आप सबका प्यार स्नेह बना रहा और उत्साहवर्धन होता रहा तो धीरे धीरे सुधार होगा।

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  4. नगरोटा व चंडिका देवी तो मै भी दर्शन कर आया लेकिन बैजनाथ नही जा पाया था। बढिया लिखा आपने..

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    1. नहीं गए हैं तो अगली घुमक्कड़ी वहीँ का कर लीजिये। यही तो फायदा है लिखने का कि एक दूसरे का पढ़कर वहां जाने और घूमने का मौका मिलता है।

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  5. बढिया पोस्ट । और आपके अंदाज ए बयां के क्या कहने

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको

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