Wednesday, November 1, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ



तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आईए हम आपको ले चलते हैं उस स्थान पर जिसका संबंध शिव और शक्ति दोनों से है और उस पवित्र स्थान का नाम है कालीमठ। कालीमठ रुद्रप्रयाग (उत्तराखंड) जिले का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। यह गुप्तकाशी और उखीमठ के बीच सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित है। इसे भारत के सिद्ध पीठों में एक माना जाता है। कालीमठ में देवी काली का एक बहुत ही प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है कि मां भगवती ने इस स्थान पर दैत्यों के संहार के लिए काली का रूप धारण किया था और उसी समय से इस स्थान पर भगवती के काली रूप की पूजा-अर्चना होती आ रही है। यहां देवी काली ने दुर्दान्त दैत्य रक्तबीज का संहार किया था, उसके बाद देवी इसी जगह पर अंतर्धान हो गई। कहा यह भी जाता है कि यही जगह प्रसिद्ध कवि कालीदास का साधना-स्थली भी थी। इसी जगह पर कालीदास ने मां काली को प्रसन्न करके विद्वता प्रदान की थी। यह स्थान धार्मिक दृष्टिकोण से तो महत्वपूर्ण है साथ यहां प्रकृति का भी अलौकिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है। साल 2013 में आई केदारनाथ त्रासदी के दौरान कालीमठ में स्थित मां लक्ष्मी, शिव मंदिर, ब्रती बाबा समाधि स्थल, मंदिर समिति कार्यालय समेत स्थानीय लोगों के कई व्यापारिक प्रतिष्ठान आपदा की भेंट चढ़ गये थे। महालक्ष्मी मंदिर के टूटने के साथ ही मंदिर में रखी हुई पौराणिक पत्थर तथा धातु की मूर्तियों में से कई मूर्तियां सरस्वती नदी के उफान में बह गई। सरस्वती नदी के दीवार के साथ बनी रेलिंग पर भक्तों द्वारा बांधी गई घंटियां इसकी शोभा में चार चांद लगाने का काम करती है।

आईए अब यात्रा की बात करते हैं। विश्वनाथ मंदिर से दर्शन करके लौटते-लौटते करीब करीब साढ़े सात बज चुके थे। कालीमठ जाने के लिए जीप बुक करके हम लोग गेस्ट हाउस आ गए थे। अपनी अपनी प्रसाद की थैलियां गेस्ट हाउस में रखकर हम लोग जल्दी कालीमठ जाने के लिए निकल गए। गेस्ट हाउस से बाहर आए तो देखा कि जीप वाला भी अपनी जीप लेकर वहीं पहुंचा हुआ है। हम सब जीप में बैठ गए और कालीमठ की तरफ चल पड़े और घड़ी देखा तो समय ठीक साढ़े सात बज चुका था। बरसात भी इस समय बिल्कुल ही बंद हो चुकी थी। जीप में बैठते ही जीप वाले ने जीप स्टार्ट की और अपनी मंजिल की तरफ बढ़ चली। गुप्तकाशी से कालीमठ जाने के लिए रुद्रप्रयाग की तरफ ही वापस आना पड़ता है और वहीं से आबादी से बाहर निकलने पर एक बाई ओर नीचे की तरफ रास्ता जाता है वही रास्ता कालीमठ जाती है। गुप्तकाशी से कालीमठ की दूरी तकरीबन 9 किलोमीटर है। गुप्तकाशी से कालीमठ वाले रास्ते की तरफ मुड़ते ही रुकी हुई बरसात एक बार फिर से आरंभ हो गई और इस बार तो इसके रंगत की कुछ और लग रहे थे। इस बरसात को देखते ही ये अनुमान हो गया था कि ये बरसात अब कम से कम दो-तीन घंटे तो हमारा हमसफर बनके साथ-साथ चलता रहेगा। खैर बरसात होती रही और जीप का चालक धीरे-धीरे जीप को चलाता रहा। हर दिन की बरसात से सड़कें धुल चुकी थी। कहीं कहीं तो सड़क का नामोनिशान भी नहीं था। ड्राइवर बता रहा था कि इस तरफ और जगहों की अपेक्षा बरसात होने पर ज्यादा भू-स्खलन होता है और अगर जैसी बरसात हो रही है वैसी ही होती दो-तीन घंटे लगातार होती रही तो घंटे दो घंटे बाद रास्ते बंद भी हो सकते हैं इसलिए जब आप मंदिर पहुंचे तो वहां आधे घंटे से ज्यादा समय व्यतीत न करें, वरना आपका समय मार्ग बंद हो जाने से बर्बाद होगा। उसकी बातों को सुनकर हम लोग भी उसकी हां में हां मिलाते हुए चले जा रहे थे।

अभी करीब एक किलोमीटर भी नहीं चले थे कि एक जगह पहाड़ से गिरता हुआ झरना मिला। झरने के पानी के बहाव के कारण सड़क पूरी तरह से बह चुकी थी। सड़क की हालत देखकर हमने तो पहले यही समझा कि यहां हम लोगों को गाड़ी से उतरना पड़ेगा उसके बाद ही गाड़ी पार होगी। मैंने तो जीप वाले से ये पूछ भी लिया कि क्या हम लोग गाड़ी से उतर जाएं। मेरी बात को सुनकर पहले तो वो मुस्कुराए उसके बाद बोले कि इस रास्ते पर आप कहां-कहां उतरेंगे और यदि हम आप सबको हर जगह उतारने लगेंगे तो इससे अच्छा तो आपका पैदल ही जाना उचित होगा। उसके बाद उन्होंने बताया कि अभी तो ये शुरुआत है अभी पूरे रास्ते ऐसे ही दृश्य मिलेंगे जहां सड़क पर मिट्टी तक नहीं मिलगी और कीचड़ से होकर गुजरना होगा। इस झरने को पार करके थोड़ा आगे बढ़े तो मंदाकिनी नदी दिखनी आरंभ हो गई। एक तरफ बरसात से भीगे हुए पहाड़ जो न जाने कब गिर जाए और दूसरी तरफ मंदाकिनी घाटी और ऊपर से घनघोर बरसात। दृश्य कुछ ऐसा लग रहा था जैसे कि हम हकीकत की दुनिया में न होकर किसी हाॅलीबुड की फिल्म दिख रहे हों। मुझे और बीरेंद्र भाई और सीमा कुमारी जी को तो इन दृश्यों को देखना रोमांचकारी लग रहा था पर दूसरे साथी राकेश आजाद जी भी बिल्कुल सामान्य स्थिति में सफर कर रहे थे लेकिन सुप्रिया सोनम और धीरज कुमार की हालत कुछ अच्छी नहीं थी। उन दोनों को चेहरे को देखकर तो यही लग रहा था जैसे कह रहे हों कि कहां फंस गया ईधर आकर और हे ईश्वर हमारी रक्षा करना। धीरज जी ने तो बोल भी दिया कि अब जिंदगी में दुबारा कभी भी ईधर नहीं आउंगा और अगर पता होता कि ऐसे रास्ते हैं तो मैं इस बार भी नहीं आता।

इन दोनों के लिए पहाड़ का ये पहला सफर था और उसके ऊपर से इनको बरसात भी मिल गई तो अनुभव तो कड़वे होने ही थे। कुछ भी पूछने पर सीधा जवाब देते कि अब नहीं आउंगा ईधर। मैं भी उनको कभी हिम्मत देता कि अरे कुछ नहीं होगा आप पहली बार आए हैं इसलिए ऐसा महसूस हो रहा है तो कभी उनको डराता भी कि अभी तो बहुत कुछ देखना बाकी है और अभी हम जिस रास्ते से जा रहे हैं उससे भी ज्यादा डरावने रास्ते हमें आगे के सफर में मिलेंगे और साथ में भालू भी मिलेंगे। इन बातों को सुनकर उनके चेहरे पर कभी डर तो कभी रोमांच तो कभी खुशी भी झलक जाती थी। हम सब ऐसे ही चले जा रहे थे तो ड्राइवर दो नदियों के संगम पर एक जगह जीप रोका और बताया कि ये जो सड़क के साथ-साथ बह रही है वह मंदाकिनी नदी है और दूसरी तरफ से साफ पानी वाली जो नदी आ रही है वह मधु गंगा है। एक तरफ मंदाकिनी का पानी बिल्कुल मटमैला था तो दूसरी तरफ मधुगंगा का पानी इतना स्वच्छ दिख रहा था कि अगर उसमें सूई भी गिर जाए तो साफ दिख जाए। वैसे इन नजारों का असली लुत्फ तभी लिया जा सकता है जब ईधर की घुमक्कड़ी अपनी गाड़ी से किया जाए। सार्वजनिक वाहन से घूमते हुए इन प्राकृतिक दृश्यों को आत्मसात करना संभव नहीं है। साथ ही गाड़ी वाले ने यह भी बताया कि 2013 की त्रासदी में इसी मधुगंगा के बगल में एक बहुत बड़ा पेड़ हुआ करता था जो कि अब नहीं हैै और उस समय उस पेड़ पर करीब 20 लोग थे जिनकोे हम स्थानीय लोगों ने बहुत ही मुश्किल से बचाया था। यहां हमने कुछ फोटो लेना चाहा पर बरसात के कारण गाड़ी से उतरना संभव नहीं था तो गाड़ी में बैठे बैठे दो-चार फोटो लिए उसके बाद ड्राइवर ने जीप स्टार्ट की और हम आगे बढ़ चले।

इसी तरह चलते हुए हम करीब आधी दूरी तय कर चुके थे। ड्राइवर के अनुसार आगे का क्षेत्र इस मार्ग का सबसे कठिन क्षेत्र था। बरसात के दिन हर दिन यहां पहाड़ गिरते हैं और रास्ते चार-पांच घंटे के लिए बंद हो जाते हैं और बात भी सही थी। सड़क को देखकर ही अंदाजा हो गया था कि यहां हर दिन पहाड़ गिरते होंगे। सड़क की हालत ऐसी थी कि लग ही नहीं रहा था कि यह कोई पक्की सड़क है। जगह जगह से कोलतार और यहां तक कि पत्थर तक बह चुके थे। पहाड़ से झर झर, झर झर पानी गिर रहे थे और और अपने साथ सड़क को धीरे धीरे बहा कर ले जा रही थी। धीरे धीरे चलते हुए हम आखिरकार उस जगह पर पहुंच गए जहां हमें पहुंचना था। अच्छे मौसम में गुप्तकाशी से कालीमठ की 9 किलोमीटर की दूरी को तय करने में जहां करीब 20 मिनट का समय लगता है, पर बरसात और धुल चुकी सड़कों के कारण आज हमें इसी सफर को पूरा करने में करीब 40 मिनट का समय लग गया। कालीमठ में बरसात के जो हालात थे कि यहां गाड़ी से निकलना भी मुश्किल लग रहा था फिर भी किसी तरह गाड़ी से उतरे और वहीं पास के दुकान में प्रसाद खरीदा और मंदिर की तरफ चल पड़े। मंदिर सरस्वती नदी के दूसरी तरफ स्थित है। नदी को पार करने के लिए लोहे का पुल बना है। हम सब भी लोहे के पुल को पार करते हुए मंदिर के पास पहुंच गए। मंदिर में दो-चार स्थानीय लोग और पुजारी के सिवा और कोई नहीं था।

मंदिर में पहुंचकर हम सब को पुजारी जी ने बहुत ही इत्मीनान से एक एक करके पूजा करवाया। हम न जाने कितनी मंदिरों में गए हैं पर किसी भी मंदिर में चाहे वो अपने मोहल्ले का ही मंदिर ही क्यों न हो इस तरह शांति से बैठ कर पूजा करने का सुख कहीं नहीं मिला। ये पहला ऐसा मंदिर है जहां हमें इतने इत्मीनान से पूजा और दर्शन करने का सौभाग्य मिला और इसका एक मात्र कारण बरसात और खराब मौसम था। पुजारी के अनुसार इस मौसम में स्थानीय लोगों के सिवा यहां कोई और नहीं आता। हम लोग भी कई दिनों बाद यहां आने वाले बाहर के लोग थे। पूजा-पाठ से निवृत्त होने के बाद पुजारी ने इस मंदिर की पौराणिक कथा और मंदिर के बारे में बहुत ही विस्तार से बताया जो निम्न प्रकार है :

‘‘एक बार देवताओं का शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो दैत्यों के साथ युद्ध छिड़ गया। वे दोनों दैत्य बड़े भयंकर थे तब सारे देवताओं ने मिलकर उस परम आदि-शक्ति की प्रार्थना की, जिससे उपरांत उन सभी देवताओ के शरीर से उत्पन्न उनकी सभी शक्तियां एकत्रित होकर एक तेज पुंज रूप में माता जगदम्बा के रूप में अवतरित हुई और उन माता जगदम्बा का उन दैत्यों के साथ युद्ध आरम्भ हो गया। माता ने उनके एक-एक करके सभी राक्षसों का वध करना शुरू कर दिया। जिससे त्रस्त होकर उन दोनों दैत्यों ने सबसे महान असुर रक्तबीज का आवाहन किया। रक्तबीज की एक सबसे खास बात थी कि अगर उसके शरीर से एक भी रक्त की बूँद धरती पर गिरती तो उससे उसके ही समान एक दूसरा शक्तिशाली रक्तबीज पैदा हो जाता। यह वरदान उस दैत्य ने ब्रह्मा जी से प्राप्त किया था। इस प्रकार जब रक्तबीज उन दोनों दैत्यों के आवाहन से प्रकट हुआ तो उन्होंने उसे आज्ञा दी कि वह देवताओ का विनाश करके उन माता जगदम्बा का भी विध्वंश करे। ऐसी आज्ञा पाकर उस दैत्य रक्तबीज ने नरसंहार करना शुरू कर दिया और चारों तरफ हाहाकार मचने लगा। तब माता जगदम्बा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उस दैत्य पर वार करना शुरू कर दिया। लेकिन जैसे ही उस दैत्य का रक्त धरती पर गिरता है वैसे ही उससे उसके समान दूसरा शक्तिशाली असुर पैदा हो जाता, इससे माता की क्रोध की सीमा लगातार बढ़ रही थी और जब माता इससे त्रस्त हो गयी तो उनकी क्रोधागिन से माता काली रूप में प्रकट हो गयी और सब दैत्यों का भक्षण करने लगी। जब माता काली ने देखा कि इस दैत्य की प्रत्येक बूँद से लगातार असुर पैदा होते जा रहे हैं तो उनका क्रोध सभी सीमा लांघने लगा और माता अमानवीय व्यवहार करने लगी और जैसे ही उस दैत्य पर वार करती, और जैसे ही उस दैत्य का रक्त गिरता, उस रक्त को माता काली अपने खप्पर में लेकर उसका पान करने लगी, जिससे उस दैत्य का सारा रक्त क्षीण हो गया और जिसके बाद माता काली ने उस दैत्य रक्तबीज का संहार कर दिया। परन्तु उस समय तक माता काली का क्रोध विशाल प्रचंड वेग धारण कर चुका था। उन्होंने दैत्य रक्तबीज का संहार कर दिया था लेकिन उनका क्रोध अब शांत नहीं हो रहा था। उनका क्रोध इतना अधिक बढ़ चुका था कि उनके सामने जो भी आ रहा था उसको ही मौत के घाट उतार रही थी यहाँ तक कि वे देवताओ को भी नहीं बक्श रही थी जिसके कारण सब ओर भय व्याप्त हो गया। सभी देवता भी भयभीत हो उठे और वो सब भगवान् शंकर की शरण में गए और उनसे उनको शांत करने की प्रार्थना की। क्योकि केवल भगवान् शिव ही उनको शांत करा सकते थे इसीलिए भगवान् शिव उनको शांत करने के लिए तैयार हो गए। माता काली क्रोध के वशीभूत होकर हिमालय की तरफ बढ़ने लगी और वो यह नहीं देख रही थी कि नीचे क्या है? उनके पैर भी उनका साथ नहीं दे रहे थे तब उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान् शिव उसी रुच्छ महादेव शिला पर, जिस पर भगवान् शिव ने अपनी विष की पीड़ा को शांत किया था, लेट गए और अपने अन्दर भयंकर शीतल उर्जाओं को समाहित कर लिया। जैसे ही माता काली उस स्थान से निकली, उनका पैर महादेव शिव पर पड़ गया। जैसे ही माता काली का पैर महादेव पर पड़ा उनके शरीर से अत्यधिक शीतल उर्जाये माता काली के शरीर के ताप को शांत करने लगी। हालाकि माता ने उस समय यह नहीं देखा और समझा कि उनके पैर के नीचे भगवान् शिव आ चुके है लेकिन जैसे ही भगवान् शिव का स्पर्श और उनकी शीतल उर्जाओ का प्रभाव माता काली पर हुआ तो उनका क्रोध शांत होने लगा। थोडा आगे जाकर उनका क्रोध शांत हुआ और उन्हें इस बात का ज्ञान हुआ कि उनके पैर से भगवान् शिव का अपमान हुआ और इसी अपमान के बोझ से उनका मन व्याकुल हो उठा और वह तुरंत उसी क्षण धरती में समां गयी और जिस स्थान पर उनका क्रोध शांत हुआ वह स्थान कालीमठ कहलाया और जिस जगह वो धरती में समाई वह स्थान काली कुण्ड कहलाया। साथ ही पुजारी ने ये भी बताया कि जब देवी काली धरती के अंदर समाहित हो रही थी तो उनका आधा शरीर जब धरती में समा चुका तो धरती ने उनके वजन को सहने से अक्षमता जाहिर की और और आधा शरीर धरती के ऊपर ही रह गया। आधा शरीर तो धरती में समा गया थो वो अंदर ही अंदर बहकर दूर चला गया और बहते बहते जिस स्थान पर उस आधे शरीर को शरण मिली वही जगह आज धारी देवी के नाम से जाना जाता है।’’

मंदिर परिसर में जो चीज सबसे खूबसूरत और मनभावन लगा था वह था सरस्वती नदी के किनारे की दीवारों पर बंधी घंटियां। आप उत्तराखंड के किसी भी मंदिर में चले जाए ऐसी घंटियां बहुतायत में मिलती हैं। मुख्य मंदिर में पूजा-पाठ कर लेने के बाद हम इसी परिसर में बने और भी मंदिर, जैसे महालक्ष्मी मंदिर, महासरस्वती मंदिर और गौरीशंकर मंदिर आदि में पूजा-अर्चना किए और उसके बाद वापस चल पड़े। बरसात ने और ज्यादा रफ्तार पकड़ ली थी। अब तो फोटो लेना भी मुश्किल काम ही था, फिर भी किसी तरह एक हाथ में छाता और दूसरे हाथ में कैमरा लेके फोटो लेता रहा। बरसात का आलम ऐसा था कि कैमरा भीग तो नहीं रहा था पर बरसात की उड़ती फुहारों के कारण फुहारें कैमरे के लेंस पर आ रही थी। एक फोटो लेता फिर लेंस को रुमाल से ढंकता और इसी तरह कुछ फोटो लेते हुए हम फिर से धीरे पुल को पार करते हुए नदी के दूसरी तरफ आ गए। जिस दुकान से प्रसाद खरीदा था उनको पैसे दिए और उनकी छतरी वापस करके हम हम गाड़ी में बैठ गए। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट किया और गुप्तकाशी की तरफ चल पड़ा। वैसे तो इस यात्रा में हम छः लोग ही थे, पर हम सबके अलावा इस यात्रा में हमारा एक सातवां साथी भी जो हमारे न चाहते हुए जबरदस्ती हमारे साथ चलता रहा और पूरी यात्रा में साथ ही रहा। अरे चैंकिए मत वो सातवां साथी था बरसात, आखिर इन्होंने पूरे सफर में हमारा साथ बिल्कुल मन से निभाया तो साथी ही हुए। चलिए अब आगे बढ़ते हैं। वापसी के समय तो बरसात की हालत ऐसी हो चुकी थी कि रास्ते तक नहीं दिख रहे थे। अगर मैदानी इलाके का ड्राइवर होता तो शायद इस हालत में वो गाड़ी चलाने से मना कर देता।

बारिश होती रही और हम चलते रहे। आधे से ज्यादा दूरी हम लोग बरसात के रौद्र रूप के साथ ही तय कर चुके थे। आधी दूरी तय करने के बाद बारिश का असर कुछ कम हुआ और गुप्तकाशी पहुंचते पहुंचते बरसात अब बूंदा-बांदी में तब्दील हो चुकी थी। फिर भी ये बूंदा-बांदी इतनी थी कि कोई पांच मिनट खुले में खड़ा रह जाए तो पूरी तरह भींग जाए। गुप्तकाशी पहुंचकर हमने गाड़ी वाले को पैसे दिया और और गेस्ट हाउस आ गए। घड़ी देखा तो 9ः30 बज चुके थे। अब हमारा अगला पड़ाव चोपटा था और वहां तक हम जल्द से जल्द पहुंच जाना चाहते थे, अतः समय व्यर्थ ने गंवाते हुए मैं और बीरेंद्र भाई चोपटा जाने वाली गाड़ी की तलाश में सड़क पर आ गए। यहां आते ही पता चला कि चोपटा के लिए यहां से कोई गाड़ी नहीं मिलेगी। चोपटा जाने के लिए पहले या तो उखीामठ जाना पड़ेगा फिर वहां से कोई गाड़ी रिजर्व करके चोपटा तक पहुंचना होगा या फिर सीधे यहीं से गाड़ी रिजर्व करके चोपटा तक जा सकते हैं। कुछ सोच विचार के बाद हमने 1500 रुपए में गुप्तकाशी से चोपटा तक कि लिए एक जीप बुक लिया और गाड़ी वाले को होटल के पास ही गाड़ी लाने के लिए कह कर हम सब गेस्ट हाउस की तरफ बढ़ गए। आज के लिए बस इतना ही, इससे आगे का भाग अगले पोस्ट में। तब तक लिए आज्ञा दीजिए।
जय भोलेनाथ।

कालीमठ कैसे जाएं : कालीमठ की दूरी गुप्तकाशी से 9 किलोमीटर है। हरिद्वार की तरफ से आते समय गुप्तकाशी कस्बा आरंभ होने से पहले ही दाएं तरफ एक सड़क जाती है, वही रास्ता कालीमठ तक जाती है। कालीमठ जाने के लिए पहले तो हरिद्वार या ऋषिकेश आना होता है। हरिद्वार या ऋषिकेश से पहले रुद्रप्रयाग या गुप्तकाशी आएं। कुछ बसें तो सीधे गुप्तकाशी आती है और अगर गुप्तकाशी की बस नहीं भी मिले तो गोपेश्वर जाने वाली बस से रुद्रप्रयाग तक आएं और उसके बाद वहां से गुप्तकाशी। चारधाम यात्रा के जब जोरों पर चल रही हो तो गुप्तकाशी से कालीमठ के लिए बहुत आसानी से जीप मिल जाती है, क्योंकि उस समय यहां आने वाले लोगों की संख्या त्यादा होती है। जब यात्रा मद्धिम चल रही हो तो फिर कालीमठ जाने के लिए गुप्तकाशी से जीप को रिजर्व करके ही ले जाना पड़ता है। ऐसी नहीं कि सवारियां नहीं मिलती पर ये गाड़ी वाले का गोरखधंधा है कि बिना रिजर्व के जाएंगे ही नहीं। कालीमठ आने वाले लोगो के ठहरने की बात है तो यहां आने वाले लोगों के लिए ठहरने के लिए सबसे बढि़या जगह गुप्तकाशी ही है।


इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली




आइये अब इस यात्रा के कुछ फोटो देखते हैं :





बादलों से ढंके पहाड़ 


पहाड़ से गिरता झरना


डरावने बादल 


सड़क के नीचे मन्दाकिनी नदी और ऊपर पहाड़ 


बरसात से ख़राब हुई सड़क 


एक और झरना 


मधु गंगा नदी 


मन्दाकिनी नदी 


जब रास्ते ऐसे हों तो डर तो लगेगा ही 

कालीपीठ जाने के लिए सरस्वती नदी पर बना पुल 


कालीपीठ जाने के लिए सरस्वती नदी पर बना पुल


कालीपीठ जाने के लिए सरस्वती नदी पर बना पुल


कालीपीठ जाने के लिए सरस्वती नदी पर बना पुल


कालीपीठ मंदिर का आंतरिक दृश्य 


कालीपीठ मंदिर का आंतरिक दृश्य


श्री महालक्ष्मी मंदिर 


सरस्वती नदी के दीवार के ऊपर बंधी घंटियां 

देवताओं के प्रतिमाएं


शिवलिंग और नंदी 


महासरस्वती मंदिर और गौरी शंकर मंदिर 


सरस्वती नदी 


सरस्वती नदी और दीवार के ऊपर बंधी घंटियां 


ख़राब मौसम का एक दृश्य 


सरस्वती नदी और दीवार के ऊपर बंधी घंटियां 


महालक्ष्मी मंदिर जाने का प्रवेश द्वार 


कालीपीठ के सामने मैं 


 एक बार पुनः जरूर आएं 


कालीपीठ मंदिर 

बरसात इतनी थी कि बिना छाते लगाए चल नहीं सकते थे 

सरस्वती नदी के साथ पहाड़ और बादल 


2013 में आई आपदा में बर्बादी के निशान 


दिन में भी रात का अहसास 


इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली




21 comments:

  1. बहुत बढ़िया अभय भाई... ऐसी बारिश की घुमक्कड़ी किस्मत से मिलती है...सच है जिसने यह नहीं किया उसका डरना स्वाभाविक है...रक्तबीज और काली माता की पौराणिक कथा अच्छी लगी पढ़ कर..बढ़िया चल रहे हो

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद प्रतीक भाई जी...... सही मौसम में इन नजारों को देखने के लिए तो कभी भी जाया जा सकता है पर जाने के बाद लगातार होते बरसात ने जो पूरे सफर में साथ निभाया और जिन दृश्यों से साक्षात्कार करवाया वो कभी न भूलने वाली यादों में सम्मिलित हो गई.... एक बार फिर से धन्यवाद और धन्यवाद

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  2. यात्रा की चौथी कड़ी, हमें लगा आज तो चोपता पहुँच ही जाएँगे। पहाड़ की बारिश और लैण्डस्लाइड पहली बार आने वाले को खौफ से जरूर भर देती है। कालीमठ के सुदंर दर्शन हुए, वो भी आपके सांतवे साथी के सहयोग से। सुदंर यात्रा वर्णन 💐💐

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    1. 💐💐💐💐💐💐💐💐 बहुत सारा धन्यवाद अनुराग जी, बस कुछ और इंतजार कीजिए अगले भाग में चोपटा तक का सफर पूरा करा देंगे। पहली बार आने वाले को जब शुरुआते से ही बरसात और लैंडस्लाइड से सामना हो जाए तो डरना लाजिमी है। सातवें साथी की तो कुछ कहिए ही मत ये बिना कहे ही हमारे साथ चलते रहे और खूबसूरत दृश्यों से रू-ब-रू कराते रहे। एक बार पुनः धन्यवाद। 💐💐💐💐💐💐💐💐

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  3. मुझे बारिश में पहाड़ो पर जाना कम पसन्द है क्योंकि जिन नजरो को देखने हम इतनी दूर आये है वो तो दिखाई नही देते सिर्फ पानी और पानी ही दिखाई देता है ।
    बारिश का मजा मुझे घर मे ज्यादा आता है और पहाड़ो पर घूमना गर्मियों में ☺
    इस भीगी भीगी यात्रा के लिए बधाई ��

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद बुआ ही जो आप यहां आए, बरसात में पहाड़ों का एक अलग ही दृश्य सामने आता है, हरे भरे पहाड़ के ऊपर दौड़ते और चक्कर लगाते काले-सफेद बादल बिल्कुल ही मनमोहक और नयनाभिराम लगते हैं। वैसे पहाड़ों पर घूमने का असली आनंद तो गर्मियों में ही है, पर कभी कभी विपरीत मौसम में भी यहां जाना बहुत ही सुकून का अहसास कराता है। बहुत सारा धन्यवाद एक बार फिर से बुआ जी।

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  4. सारा जहाँ ही भीगा भीगा नजर आता है .... हवा में पानी, कपड़ो पर भी पानी और पहाड़ो में पानी पानी ही नजर आता है.... बारिश में कुछ मजा भी और कुछ सजा भी है यात्रा की.... भरपूर आनंद लिया आपकी यात्रा का और कालीमठ मंदिर के दर्शन भी हो लिए

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    1. जी हां भाई जी सब कुछ भीगा-भीगा हुआ था। धरती से लेकर आसमान तक। सड़क से लेकर पहाड़ तक। पानी के अलावा कहीं और कुछ था ही नहीं। कुछ परेशानियों का सामना करना पड़ा पर मजा बहुत आया इस पूरे यात्रा में। पहाड़ों की खूबसूरती का अहसास इस बरसात में ही हुआ।

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  6. बहुत खूबसूरत वर्णन... हम यहां 3 बार जा चुके हैं लास्ट 2009 में था.. काफी कुछ बदल गया.. जल्दी ही दुबारा जायेंगे

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    1. धन्यवाद तिवारी जी। ब्लाॅग पर आने और लेख को पढ़ने और फिर सुंदर टिप्पणी से इसकी शोभा बढ़ाने के लिए ढेर सारा धन्यवाद। हम भी अचानक ही चले गए थे यहां। जाने का कोई प्लान नहीं था फिर गुप्तकाशी में काशी विश्वनाथ के दर्शन के बाद सभी का मन हुआ कि पहले कालीमठ चलते हैं उसके बाद चोपता चलेंगे और कालीमठ की तरफ चल दिए थे।

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  7. बहुत ही सुंदर ढंग से वर्णन अभय तुमारी लेखनी गजब लगे रहो आगे भी,,,,बरसात ओर घुम्मकडी का एक अलग ही रिश्ता है मजा आ गया फ़ोटो एक से बढ़कर एक ऐसे ही अनछुई जगह के बाटे मैं जानकारी देते रहो

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    1. बहुत सारा धन्यवाद आपको दीदी। हां दीदी बरसात में ही वो पूरी यात्रा पूरी हुई थी। रुद्रप्रयाग पहुंचने के बाद जो बरसात आरंभ हुई तीन दिन एक मिनट के लिए भी बरसात बंद नहीं हुई और हम भी बरसात में ही जो सोच कर गए घूम लिए और उससे ज्यादा ही घूमे।

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  8. बहुत अच्छा विवरण। कालीमठ में एक gmvn का गेस्ट हाउस था जो आपदा में ढह गया। कालीमठ के मंदिर समूह में पीछे की तरफ एक छोटा सा मंदिर है जिसमे अद्भुत सुंदरता वाली हर-गौरी यानी शिव पार्वती की मूर्ति है। इसका विवरण हिमालय के सबसे बड़े घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन ने भी किया है।

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    1. धन्यवाद हिमांशु जी। हां उस आपदा में बहुत कुछ बह गया था। मंदिर प्रांगण का भी बहुत सारा भाग नदी के बहाव में बह गया था। आस-पास नदी किनारे के बहुत सारे घर भी उसी बाढ़ में समा गए थे। एक बार और वहां जाना है क्योंकि वहां के पुजारी ने बताया था कि मंदिर से 6 किमी की चढ़ाई के बाद एक कालीशिला नामक स्थान है, और अगली बार वहां भी जाने का सोचा है।

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  9. बहुत सुंदर वर्णन किया आपने इस जगह का। केदरनाथ से लौटते वक्त गुप्त कांशी से ही एक रोड कालीमठ के लिए जाता है मैं भी कुछ दूरी तक इस रास्ते पर गया लेकिन फिर वापिस लौट आया यह कहकर की कभी बाद में आऊंगा तब आपके दर्शन करूँगा। फ़ोटो कमाल के है

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद त्यागी जी। हमारा भी यहां जाने का कोई प्लान नहीं था, सब कुछ अचानक ही हुआ था हम तो तुंगनाथ जाने के लिए निकले थे पर बरसात ने हमें गुप्तकाशी पहुंचा दिया और फिर कालीमठ भी पहुंच गए और सबसे लास्ट में तुंगनाथ में महादेव के शरण में भी पहुंचे थे। इस यात्रा में बरसात के कारण पहाड़ों की जो खूबसूरती दिखी उसे देखकर तो यही लगता है कि इसी मौसम में यहां जाना चाहिए, थोड़ी परेशानियां तो होती है पर बहुत ही सुहावना लगता है।

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  10. This is really amazing and beautiful pictures. I really like this awesome post. Really enjoyed reading your blog. Thanks for sharing your trip experience. I like your blog very much.
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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको।

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  11. विचारपूर्ण टिप्पणी। धन्यवाद कि आपने इस विषय पर अच्छा समाधान प्रस्तुत किया। गुप्तकाशी मंदिर रुद्रप्रयाग

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