Friday, November 3, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर





तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में हम आपको तुंगनाथ मंदिर ले चलते हैं। तुंगनाथ का स्थान पंच केदारों में से तीसरे स्थान पर है। पहले स्थान पर केदारनाथ मंदिर जो द्वादश ज्योतिर्लिगों मे से एक है। द्वितीय केदार के रूप में भगवान मदमहेश्वर की पूजा की जाती है। तुंगनाथ मंदिर तृतीय केदार के नाम से जाना जाता है। चतुर्थ और पंचम केदार क्रमशः रुद्रनाथ और कल्पेवश्वर को माना जाता है। तुंगनाथ जी का मंदिर समुद्र तल से लगभग 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर कई पौराणिक तथ्यों को अपने आप में समेटे हुए है। कथाओं के आधार पर यह माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था। मंदिर का इतिहास हजारों साल पूर्व का रहा है। यहीं मंदिर से कुछ ऊपर एक चंद्रशिला नामक चोटी है जिसके बारे में कहा जाता है कि राम ने रावण का वध करने के पश्चात ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने के लिए कुछ दिन तक इस चोटी पर तपस्या की थी और तभी से इस स्थान का नाम चंद्रशिला पड़ गया। यह मंदिर केदारनाथ और बदरीनाथ मंदिर के लगभग बीच में स्थित है। यह गढ़वाल के सुंदर स्थानों में से एक है। जनवरी से मार्च तक मंदिर पूरी तरह से बर्फ में डूबा हुआ होता है। बरसात के मौसम में दूर दूर तक हरियाली ही हरियाली दिखती है। तुंगनाथ तक पहुंचने के लिए चोपता से तुंगनाथ तक की तीन किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई का रास्ता पैदल ही तय करना पड़ता है। चोपता से तुंगनाथ के पैदल मार्ग को हर जगह 3 किलोमीटर ही लिखा गया है पर मुझे ये दूरी 3 किलोमीटर से ज्यादा प्रतीत होती है। अब चाहे दूरी जितनी हो जिनको जाना है वो चाहे कितनी भी दूरी वो तो जाएंगे ही।


आईए अब यात्रा की बात करते हैं। साढ़े ग्यारह बजे हम गुप्तकाशी से चोपता पहुंच गए थे। यहां पहुंचकर 800 रुपए में दो कमरे लिए और सामान रखकर जल्दी से जल्दी तुंगनाथ के लिए निकल जाने की तैयारी करने लगे। जल्दी करने का एक कारण यह भी था कि आज ही हम तुंगनाथ में भोलेनाथ के दर्शन करके शाम तक वापस चोपता आ जाना चाहते थे जिससे कल यहां से हरिद्वार तक के सफर में कोई परेशानी न हो। जब आज ही लौट कर आना ही था तो तो कोई सामान साथ ले जाना उचित नहीं था और हम सबने भी ऐसा ही किया। जो साथी रेनकोट लेकर आए थे उन्होंने रेनकोट पहना और जिनके पास छतरी थी उन्होंने छतरी लिया और साथ में कैमरा लिया और बाकी चीजें यहीं रहने दिया। बरसात भी इतनी तेज थी कि हम सबने मोबाइल भी अपने साथ नहीं रखा। यही सोचा कि इतनी बरसात है तो कैमरा ही संभालना मुश्किल है तो एक मोबाइल भी साथ में क्यों रखे और कौन सा वहां रुकना है। दो घंटे वहां पहुंचने में लगेंगे, एक घंटे वहां रुकेंगे और फिर दो घंटे वापसी में लगेंगे। कितना भी देर हुआ तो शाम को 6 से 7 बजे तक तो वापस आ ही जाएंगे। अब जब हमने मोबाइल न ले जाने की सोचा तो मन एक बार ये विचार आया कि एक बार फोन करके घर पर बता दूं कि हम मोबाइल साथ में लेकर नहीं जा रहे हैं इसलिए अगर फोन न आए तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। वैसे चोपता में मोबाइल में सिग्नल की बहुत ज्यादा समस्या होती है फिर भी मैंने घर पर फोन करने की नाकाम कोशिश किया कि क्या पता थोड़ा बहुत भी नेटवर्क आए तो बात हो जाए। पर बात तो होनी थी नहीं इसलिए नेटवर्क नहीं आया पर आप अपनी भाषा में ये भी कह सकते हैं कि नेटवर्क आया ही नहीं तो बात भी नहीं हुआ। हमें चोपता पहुंचे हुए करीब आधा घंटा हो चुका था तो और सब लोग निकलने के लिए बिल्कुल तैयार थे तो हमने भी मोबाइल आॅफ किया और कमरे को बंद किया और निकल गए बाबा तुंगनाथ जी के दर्शन के लिए। मोबाइल बंद करते हुए एक बार मेरे मन में ये आया कि इतने लोग हैं तो एक मोबाइल ले लेते हैं क्योंकि क्या पता कुछ जरूरत पड़ जाए पर बरसात के कारण नहीं लिया कि कौन बरसात से बचाता रहेगा मोबाइल को।

इस वक्त मौसम की जो हालत थी वो कहीं से भी ठीक नहीं कही जा सकती थी फिर भी ठीक बारह बजे हम सब रूम से निकले और सीढि़यों की तरफ बढ़े। सीढि़यों के पास जाकर पहले तो भोलेनाथ के नाम पर शीश नवाया और वहीं प्रवेश द्वारा पर लगे हुए घंटे को बजाकर चढ़ाई आरंभ कर दी। रास्ता पक्का बना हुआ है और शुरुआत में चढ़ाई कम है पर आगे चलकर चढ़ाई बिल्कुल खड़ी है जिससे थकान ज्यादा हो जाती है। आगे-आगे हमारे पांचों साथी और उन सबके पीछे मैं चढ़ाई चढ़ना आरंभ किया और सातवां साथी हमारे ऊपर गजरता-बरसता साथ चलने लगा। मेरी कुछ गलत आदते हैं जैसे कि पैदल मार्ग में सबसे पीछे चलना।  वैसे पीछे चलने के पीछे भी कुछ खास कारण है और वो ये कि रास्ते चलते हुए रुक-रुक कर दाएं-बाएं देखना और इसी चक्कर में मैं थोड़ा पीछे हो जाता हूं फिर दौड़कर साथियों के पास पहुंचता हूं। यहां भी मैं यही कर रहा था। कहीं ये लिखा हुआ पढ़ा था कि तुंगनाथ के रास्ते में भालू मिलते हैं और मेरी खोजी नजरें भालुओं के तलाश में लगी थी। मैं रुकता और इधर-उधर देखता कि कहीं तो भालू दिख जाए पर उसे न तो दिखना न दिखा। अब तक हमारे सभी साथी थोड़ा आगे निकल चुके थे तो मैं तेज कदमों से चलते हुए उनके पास तक पहुंचा। रास्ते के दोनों तरफ बड़े-बड़े गगनचुंबी पेड़ उसके ऊपर से भारी बरसात और घने कुहरे के कारण रास्ते भी सही से नहीं दिख रहे थे फिर भी हम सब चले जा रहे थे। कुछ दूर ही आगे बढ़ा था कि तुंगनाथ से दर्शन करके लौटने वाले लोगों से मुलाकात होने लगी और ये सभी लोग स्थानीय लोग थे जो आज श्रावण पूर्णिमा होने के कारण भोलेनाथ पर जल चढ़ाने गए थे। इतने लोगों में से कोई भी ऐसा आदमी नहीं दिखा जो कहीं दूर से आया हुआ लगा।

एक दो लोगों से पूछने पर उन लोगों ने यही बताया कि आज के दिन आस-पास के गांवों के आधे से ज्यादा लोग यहां भोलेनाथ के दर्शन के लिए आते हैं वरना आप एक दिन पहले या एक दिन बाद आते तो आपको पूरे रास्ते दो-चार लोग भी बहुत ही मुश्किल से ही मिल पाते। उनकी इन बातों से हम भी खुश हुए कि चलो हम अच्छे दिन आए हैं और सब लोगों के साथ हमारा सफर भी अच्छी तरह से गुजर जाएगा पर होना तो कुछ और ही था। हम सब अपनी ही धुन में आगे बढ़ते जा रहे थे। अभी कुल मिलाकर आरंभ से 300 से 400 मीटर भी नहीं चले होंगे कि कुछ घोड़े वाले पीछे पड़ गए कि चलिए घोड़े से पहुंचा देंगे फिर वापस भी ले आएंगे। अलग-अलग घोड़े वाले अपने अपने दाम बताने लगे कि हम 250 लेंगे तो कोई 200 लेंगे। एक-दो घोड़े वाले तो 300 में जाने और आने दोनों के लिए तैयार हो गए और इसका एकमात्र यही कारण था कि इस मौसम में यात्रियों की आवाजाही बहुत कम थी और जो भी इस मौसम में आते हैं वो जुनूनी और जोखिम लेने वाले लोग ही होते हैं तो उनको सफर में पैदल ही मजा आता है। हमने उन घोड़े वाले से बहुत ही मुश्किल से पीछा छुड़ाया कि भाई हम ये जगह देखने आए हैं, घोड़े की सवारी करने के लिए नहीं आए हैं। यदि हम आपके घोड़े से जाते हैं तो आप तो घोड़े को दौड़ाते हुए वहां पहुंचा दोगे और मुझे क्या मिलेगा, कुछ भी नहीं। पैदल जाएंगे तो हम इन दृश्यों को निहारेंगे, जहां मन होगा बैठ जाएंगेे और जहां मन होगा फोटो खींचेगे। अतः हम आपके घोड़े से न जाकर पैदल ही अपना सफर पूरा करेंगे और आप भी अपने साथ-साथ हमारा भी समय बर्बाद न करें।

हमारी इन बातों से मायूस होकर घोड़े वालों ने हमारा पीछा छोड़ दिया और हम आगे बढ़ने लगे। हम सब धीरे धीरे चलते रहे और उन खूबसूरत प्राकृतिक नजारों का आनंद लेते रहे। अब प्राकृतिक नजारे भी क्या थे बस धुंध, कोहरा, बादल और बरसात। एक बात यहां हमारे साथ ये बढि़या थी कि इस समय हम किसी गाड़ी में नहीं थे कि गाड़ी वाला रोकेगा तो हम फोटो लेंगे और इन मनोहारी दृश्यों को देखेंगे। यहां तो हम आजाद पंछी थे जहां मन करता बैठ जाते, जहां मन करता चल पड़ते, जिस चीज का मन हो जाए, पत्थर, पेड़, बादल, बंदर, झोपड़ी और चाहे कुछ भी हो उसकी फोटो लेने लगते। यहां हम बिल्कुल आजाद थेे और कोई रोकने वाला नहीं था। ऐसे बरसात में भीगते हुए और पानी में छप-छप करके चलते हुए न जाने कितने दिन हो गए थे और वर्षों बाद ऐसा मौका आया है तो मैं हाथ से ऐसे मौके को जाने नहीं देना चाहता था। जहां भी रास्ते के किनारे छोटे गड्ढे में पानी दिखता मैं उस कीचड़ वाले पानी से होली खेलने लगता और ऐसा करते हुए समझिए कि हम बिल्कुल अपने बचपन के दिनों में पहुंच चुके थे। जब स्कूल से आते हुए बादल देखते ही जान बूझ कर रास्ते में देर करते थे कि कब बरसात हो और हम भीगते हुए घर जाएं और घर पहुंचते ही मां से दो-चार बात सुनेंं। पर यहां हमें कोई कुछ कहने और सुनाने वाला नहीं था इसलिए मन तो करता था कि पूरी तरह भीग जाएँ, पर भीग नहीं सकते थे क्योंकि उसके लिए दो बंधन हमारे पास थे। पहला बंधन था हमारा कैमरा था जो हमें भीगने की इजाजत नहीं दे रहा था और दूसरा बंधन था यहां का मौसम। मौसम इतना सर्द था कि हाथ-पैर सुन्न हो रहे थे। बरसात से भीगी हुई हवाएं आकर सुई की तरह चुभ रही थी। गर्म कपड़े से पूरे शरीर को ढंक रखे थे फिर ठंड का अहसास हड्डियों तक पहुंच रहा था। यहां ठंड तो वैसे ही बहुत होती है और ऊपर से कई दिनों से लगातार होती बारिश ने ठंड को ज्यादा ही बढ़ा दिया था। कुछ दूर आगे जाने पर वापस आते कुछ लोगों से हमने पूछा कि मंदिर कितनी दूर है तो उन्होंने दूर एक झंडे की ओर ईशारा करते हुए बताया कि वह जो झंडा दिख रहा है जो मंदिर के ऊपर लगा है। देखकर तो ऐसा लगा कि अब क्या है बस पहुंच गए पर अभी तो आधी दूरी भी नहीं आए थे।

कुछ दूर आगे बढ़े तो रास्ते के किनारे हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय का बोर्ड लगा हुआ दिखा तो नीचे की तरफ जा रहा था। यह एक शोध केंद्र है जहां शोधार्थी हिमालयी क्षेत्र में पायी जाने वाली वनस्पतियों पर शोध करते हैं। वैसे ही कुछ दूर और चलने पर झोपड़ीनुमा एक मंदिर मिलता है जिसे गणेश मंदिर कहते हैं और पास में ही एक बड़ी शिला है जिसे रावण शिला के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि इसी शिला पर बैठकर रावण भोलेनाथ की तपस्या किया करता था इसलिए इसका नाम रावणशिला रख दिया गया है। यहां से मंदिर की दूरी करीब एक किलोमीटर रह जाती है और मंदिर भी स्पष्ट रूप से दिखने लगता है पर बरसात के कारण हम इन दृश्यों से वंचित रह गए। चोपता से तुंगनाथ तक पूरे रास्ते बर्फ से ढंके हिमालय की कुछ चोटियों साथ-साथ चलती है और बरसात ने हमें उन दृश्यों का एक झलक भी पाने नहीं दिया। वैसे बरसात के कारण हमें पहाड़ों के अलग ही सौंदर्य के दर्शन हुए पर कुछ चीजों को हम देखने से वंचित रह गए जिसे देखने के लिए एक बार फिर से यहां आना पड़ेगा। हमारे साथियों में बीरेंद्र, सीमा और धीरज जी हमसे कुछ आगे चल रहे थे और उन तीनों के पीछे-पीछे मैं अपनी ही धुन में इधर-उधर की चीजों को देखता चला रहा था। राकेश आजाद और उनकी पत्नी सुप्रिया जी हमसे भी बहुत पीछे थे। 

सुबह से जमकर हो रही बरसात अब तक थम चुकी थी लेकिन बादलों का बसेरा अब भी वैसे ही था कि कब बरस जाए कुछ पता नहीं। बरसात बंद होने से हमारी खुशी थोड़ी ज्यादा बढ़ गई थी कि अब हम तुंगनाथ के मंदिर के दर्शन करके आराम से चंद्रशिला जा सकते हैं और फिर वापस चोपता भी समय रहते पहुंच जाएंगे। ऐसे ही चलते हुए अचानक सुबह पत्नी से हुई कुछ बातें याद आ गई। कंचन ने सुबह फोन पर बताया था कि अगर आप तुंगनाथ की तरफ जाएं तो कोशिश कीजिएगा कि दो बजे से पहले वहां पहुंचने की अन्यथा चंद्र ग्रहण के कारण मंदिर बंद हो जाएगा। इन बातों को याद करते ही हमने घड़ी पर नजर डाली तो दो बजने ही वाले थे। अभी मंदिर तक पहुंचने में हमें करीब 15 से बीस मिनट और लगने ही वाले थे मतलब हमारी ये यात्रा पूरी नहीं हो पाएगी और हमें बैरंग वापस लौटना पड़ेगा। मुझे, राकेश और सुप्रिया जी को पीछे आता देख बीरेंद्र भाई भी रुक कर हम लोगों का इंतजार करने लगे और जब सब लोग एक साथ हो गए तो आगे मंदिर की तरफ बढ़ने लगे। इसी तरह चलते हुए दो घंटे से ज्यादा का सफर तय करके ठीक 2ः15 बजे हम सब तुंगनाथ जी मंदिर के पास पहुंच गए। 

मंदिर के पास पहुंचते ही पुजारियों ने बताया कि अब तो आज ग्रहण के कारण मंदिर बंद हो चुका है और अब मंदिर कल सुबह साढ़े पांच बजे खुलेगा। मंदिर बंद होने और अब कल सुबह खुलने की बात सुनकर हमें जोर का धक्का लगा और खड़े-खड़े पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई और हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे किसी ने हमें बहुत ऊंचे पहाड़ से धक्का दे दिया और हम नीचे आ गिरे हैं। इंसान चाहे कितनी भी योजना बना ले उसकी योजना धरी की धरी रह जाती है और होना वही होता जो होना होता है। इस पूरे सफर में परेशानियों ने हम सबका पीछा एक मिनट के लिए भी नहीं छोड़ा था। हरिद्वार से हम छः साथी चले थे और रुद्रप्रयाग से ही बरसात हमारा सातवां साथी बन चुका था और अब तो हमारा आठवां साथी भी मिल गया जिसका नाम था परेशानी। जिस उमंग और उल्लास के साथ चढ़ाई चढ़ते हुए हम यहां आए थे, यहां पहुंचकर सारा उमंग और उल्लास कहीं खो गया। कुछ देर हम लोग चुपचाप ऐसे ही बैठे रहे। फिर पुजारी से बात किया तो उन्होंने बताया कि अगर आप लोग यहां रहना चाहें तो आपको हम कमरा दे देंगे। उनकी इस बात से थोड़ी उम्मीद जगी कि चाहे थोड़ी परेशानी ही सही पर हमारी यात्रा अधूरी नहीं रहेगी। 

अभी मंदिर में दर्शन के लिए आने वाले लोगों में हम छः लोगों के अलावा कुछ और लोग भी यहां उपस्थित थे पर उन लोगों ने दर्शन कर लिया था और वापस जाने की तैयारी में थे। हमने आपस में तय किया कि अगर हम लोग वापस जाते हैं और कल सुबह फिर से यहां आते है तो यहां आते आते 8 बजेगा और और फिर वापस जाते हुए 11 बज जाएंगे फिर हम लोगों के लिए शाम तक हरिद्वार पहुंचना संभव नहीं होगा। फिर यही तय हुआ कि आज अगर यहीं कमरा मिलता है तो हम लोग किसी भी तरह यहीं पर गुजारा कर लेंगे और अभी चंद्रशिला चले जाएंगे और रात में यहीं रुकेंगे और सुबह मंदिर में जलाभिषक करने के पश्चात चोपता चले जाएंगे। मेरी बात पर बीरेंद्र भाई जी कुछ संकोच में पड़ गए और उन्होंने बताया कि हमने तो पैसे भी नीचे चोपटा में ही रहने दिया था कि यहां पैसे की कोई आवश्यकता तो थी नहीं तो हम इतने पैसे लेकर नहीं आएं हैं कि यहां कमरा ले सकें। अब पैसे की समस्या तो तब होती जब हममें से किसी ने पैसे पास में न रखे होते। मैंने उनका बताया कि पैसे की चिंता न करें हमने अपना सारा धन अपने साथ ही रखा हुआ है इसलिए इस बात से बेफिक्र रहिए। मेरी बात का उन्होंने अपनी मुस्कुराहटों के साथ जवाब दिया। 

आपस में विचार करने के बाद हमने पुजारी से बात किया तो उन्होंने हमें मंदिर के पास ही 800 रुपए में दो कमरे दे दिए। दोनों कमरे में तीन-तीन बेड लगे हुए थे यानी हम 6 लोग आराम से यहां अपना गुजारा कर सकते थे। पैसे कल देने की बात कहकर पुजारी जी अपने निवास की ओर चले गए और हम लोग कमरे में आराम करने लगे। वैसे कमरा मिल जाने की खुशी से हम सबके चेहरे चमक उठे पर मुसीबत ये थी कि हम लोगों के पास कपड़े वगैरह नहीं थे और मेरे लिए उससे भी बड़ी मुसीबत दिल्ली में बैठी कंचन जी थीं। हम चाहे जहां भी रहें, हमें हर दिन शाम को उनको अपनी सलामती की खबर मुझे हर हाल में देनी होती है और यदि ऐसा नहीं हुआ तो वो दिल्ली से लेकर पटना, मायके से ससुराल तक सब कुछ सिर पर उठा लेते हैं। ऐसा ही वाक्या एक साल पहले हुआ था जब हम वैष्णो देवी गए थे और उनसे एक दिन बात नहीं हुई तो उन्होंने सबको परेशान कर रखा था और मुझे खोजने के लिए लोगों को दिल्ली से कटरा भेजने वाली थी। अब आज भी वही बात होने वाली है। अगर उनको हम सुबह बता देते कि आज शाम को बात नहीं होगी तो वो निश्चिंत रहते कि आज फोन नहीं आएगा। अब तो न मेरे पास फोन है न यहां कोई फोन करने का साधन कि हम उनको कुछ बता सकें, मतलब हो-हल्ला मचना तय हो चुका था। 

खैर अब जो होना होगा वो होगा। अब यहां आ ही गए तो वापस तो जाने वाले हैं नहीं। अब तक 3 बज चुके थे और आपस में बातें करते हुए आधे घंटे कब बीत गए कुछ पता नहीं चला। अब हम लोग चंद्रशिला की तरफ जाने की योजना बनाने लगे कि जल्दी से निकलते हैं और शाम होने तक वापस आ जाएंगे। शाम होने तक वापस तो आ गए पर न तो हमें चंद्रशिला का रास्ता मिला न ही हम चंद्रशिला पहुंचे। जाना था चंद्रशिला और पहुंच गए कहीं और। जब वापस आए तो जो दृश्य हम लोगों ने देखा वो कभी न भूलने वाले दृश्यों में शामिल हो गया और उन दृश्यों को देखकर अब तक तीन दिन के सफर में हमने जो दुश्वारियां झेली, जो परेशानियां आईं सब कुछ भूल गए। यदि आप भी उन न भूलने वाले दृश्यों को देखना चाहते हैं अगला पोस्ट जरूर पढ़ें और हमारे साथ उन दृश्यों से साक्षात्कार करें। इससे आगे के सफर में जो कुछ भी हमारे साथ घटित हुआ और साथ ही हमने जो कुछ भी देखा, वो सब हम आपको आगे के भाग में बताएंगे। तब तक के लिए हम आपसे आज्ञा चाहते हैं और जल्दी ही मिलते हैं अपने घुमक्कड़ी जीवन के सबसे रोमांचकारी सफर के साथ। 




तुंगनाथ कैसे जाएं : तुंगनाथ जाने के लिए सबसे पहले चोपता आना होता है और चोपता से तीन किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई के बाद तुंगनाथ पहुंचते हैं। चोपता जाने के लिए इन दो रास्तों में से किसी एक से आप जा सकते हैं। ऋषिकेश से गोपेश्वर होकर या ऋषिकेश से ऊखीमठ होते हुए जा सकते हैं। ऋषिकेश  से गोपेश्वर की दूरी 212 किलोमीटर है और गोपश्वर से चोपता 40 किलोमीटर। ऋषिकेश से ऊखीमठ 178 किलोमीटर और वहां से चोपता 24 किलोमीटर है। ऋषिकेश से गोपश्वर या ऊखीमठ के लिए यात्री बसें उपलब्ध हैं। गोपश्वर या ऊखीमठ दोनों स्थानों से चोपता जीप अथवा टैक्सी भी बुक करके भी चोपता पहुंच सकते हैं।

तुंगनाथ आने वाले कहां रुकें : तुंगनाथ आने वाले लोगों के रुकने की बात की जाए तो तुंगनाथ मंदिर के पास भी पांच-छः कमरे हैं जहां रात में रुका जा सकता है पर यात्रा सीजन में यहां ये कमरे खाली मिलना संभव नहीं है। दूसरा विकल्प चोपता में रुकने का है जहां कुछ होटल है जिसमें आप रुक सकते हैं। चोपता से उखीमठ की तरफ जाने पर बनियाकुण्ड नामक एक जगह है जहां रहने के अच्छे इंतजाम है। आप चाहें तो उखीमठ में भी रुक सकते हैं और उखीमठ से सुबह जल्दी निकलकर तुंगनाथ के दर्शन करने के बाद वापस शाम तक उखीमठ पहुंच जाएंगे। उखीमठ में रहने के लिए गेस्ट हाउस और होटलों की कमी नहीं है। यहां हर बजट के लोगों के लिए आवास बहुत आसानी से मिल जाते हैं। साथ ही गढ़वाल मंडल विकास निगम का पर्यटक आवास गृह है भी जिसमें आप ठहर सकते हैं तथा उसकी बुकिंग भी आॅन लाइट निगम की वेबसाइट पर कर सकते हैं।

चंद्रशिला चोटी : तुंगनाथ के मंदिर के दर्शन कर यदि आप और ऊपर चढ़ने की हिम्मत कर सकें तो मात्र डेढ़ किलोमीटर के फासले पर चंद्रशिला नामक स्थल है, जो 14 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। चोटी पर पहुंचते ही आपको एक बड़ी ही सुखद शांति का अहसास होगा, ऐसा लगेगा कि जैसे आप और प्रकृति एक साथ हो गए हों। ये स्थान वैसे जितनी खूबसूरत है उतनी ही डरावनी भी है। अब चाहे जो कुछ भी हो इतनी ऊंचाई तक आना ही आपके लिए एक न भूलने वाला यादगार सफर बन जाता है।

इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली




आइये अब इस यात्रा के कुछ फोटो देखते हैं :




तुंगनाथ जी मंदिर 

तुंगनाथ जी मंदिर

चोपता से पैदल मार्ग आरम्भ होने के जगह पर दरवाजे पर बंधी घंटियां 

धुंध और कोहरे में लिपटा जंगल 

धुंध और कोहरे में लिपटा जंगल

बरसात से भींगे रास्ते 

सभी साथियों का एकलौता फोटो (मैं, सुप्रिया, राकेश, सीमा,  बीरेंद्र और धीरज)

ये हरियाली और रास्ता 

सफर का सातवां साथी 

पहाड़ से बहता हुआ बरसात का पानी 

तुंगनाथ जी लौटते कुछ लोग 

एक पेड़ का दृश्य 

रास्ते और आते-जाते लोग 

हरे भरे बुग्याल (बुग्याल मतलब घास के मैदान)

दूर से तुंगनाथ जी के मंदिर के ऊपर फहराता ध्वज 

उबड़-खाबड़ रास्ते 

हरे भरे बुग्याल

बुग्याल, पेड़ और उसके ऊपर मंडराते हुए बादल 

हरे भरे बुग्याल

बादल और धुंध 

बादल और धुंध 

रास्ते का एक दृश्य 

रास्ते का एक दृश्य

हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय का बोर्ड 

इतनी ठण्ड में भी इनको ठण्ड नहीं लगती 

धुंध और कोहरे  ढंके रास्ते 

एक झोपड़ी 

रावण शिला बादलों से ढंका हुआ 

मंदिर के पास का दृश्य यहां से चंद्रशिला जाने का रास्ता है 

मंदिर के आँगन के प्रवेश द्वार पर बंधी घंटियां 

मंदिर के पास का ही एक दृश्य 

मंदिर के पास का ही एक दृश्य


इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली



22 comments:

  1. प्राकृतिक नजारो के नाम लार क्या बस धुन्ध कोहरा बरसात और क्या भी बस यही बहुत है...फिर से सस्पेंस कि चंद्रशिला पहुच ही न पाए....,मंदिर में दर्शन न कर पाना और यहाँ रात रुकना दोनो जगह के रूम के पैसे लगना... सब कुछ हैनिस यात्रा मव बहुत बढ़िया

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको, बरसात, बादल, धुंध और कोहरा सब कुछ इतना ज्यादा था कि उससे ज्यादा कुछ दिख ही नहीं रहा था, वैसे जिस चीज को देखने गया वो तो नहीं मिला, पर जो मिला उससे भी बढ़कर मिला। हां भाई जी चंद्रशिला नहीं पहुंच पाए और बहुत ही मुश्किल से वापस आए, फिर चंद्रशिला अगले दिन गए। आप सब के प्रोत्साहन के कारण ही लिखने का संबल मिलता है। एक बार और धन्यवाद।

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  2. बहुत बढ़िया अभय जी।

    आपके लेख पढ़कर व चित्र देखकर मुझे भी मेरी तुंगनाथ यात्रा याद आ गयी। हम दोनों की परिस्थिति एक समान ही थी।
    मुझे भी हिमाच्छादित चोटियां नही दिख स्की चंद्रशिला से

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अक्षय जी। कमेंट करने के लिए ढेर सारा धन्यवाद। मेरी परिस्थितियां तो इस यात्रा में ऐसी हो गई थी कि क्या कहें, हिम आच्छादित चोटियां तो मुझे भी नहीं दिखीं पर जो दिखा वो भी न भूलने वाले दृश्यों में शामिल हो गया, हिमाच्छादित चोटियां तो कभी भी दिख सकती है, हमें तो वहां कुछ और ही दिखा जो आप अगले पोस्ट में देखेंगे।

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  3. लेख पढ़कर फोटो देखकर कंपकपी महसूस हो रही है। पर आपने भी पूरा डराने के बाद ही बाबा का अभिषेक करना है।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सर ब्लाॅग पर आने के लिए। सर जी मौसम ही ऐसा था कि एक-एक कदम चलना दूभर था। महादेव भी इतनी आसानी से दर्शन कहां देते हैं और डराने का काम तो हमें वहां के माॅसम ने किया था। एक बार पुनः धन्यवाद।

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  4. शानदार यात्रा की है भाई

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी

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  5. बेहतरीन यात्रा वर्णन Abhyanand Sinha जी
    आखिरकार आप पहुँच ही गये तुंगनाथ, हर हर महादेव।
    अब इंतज़ार है तुंगनाथ के जंगली जानवरों और चंद्रशिला का। पहाड़ो पर हर मौसम की अलग ही छटा है जी। बहुत शुभकामनाएँ आपको 💐💐💐

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अनुराग जी, वैसे जब हम तुंगनाथ जाने वाले थे तो जाने से पहले आपको बताया था तो अपने भी डराया था हमें कि इस मौसम में जाना ठीक नहीं है, फिर भी हम अपनी जिद पर अड़े रहकर गए और इस यात्रा का जो आनंद हमने उठाया उसका कोई जवाब नहीं जी, पहाड़ों में हर पर बदलते मौसम को देखने का बहुत नजदीक से अनुभव किया जी। अगले कड़ी में आपको इस सफर के रोमांचक और न भूलने वाले पल के बारे में आप पढ़ेंगे जो आपको कल सुबह मिल जाएगा। एक बार पुनः धन्यवाद जी।

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  6. मदमस्त हो गए सिन्हा साहब
    अब अगली कड़ी के रोमांच की प्रतीक्षा
    जय जय..!!

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी, अब हम आपको धन्यवाद तो कर रहे हैं पर यदि आपका नाम पता तो और मजा आता धन्यवाद करने में, अगली कड़ी भी प्रकाशित हो गई सर जी।

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  7. आठवां साथी.... परेशानी,
    बहुत खूब कहा अभयानंद जी।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद विकास नारदा भाई जी!
      बहुत दिन बाद आए, आप बाए बहार आई!!
      जी हां सातवां साथी बरसात और आठवां साथी परेशानी जो आगे भी साथ निभाती रही।
      एक बार पुनः धन्यवाद!!!

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  8. देर से ही पहुँचना था तो कमसकम घंटे दो घंटे की देरी से पहुँचते. तब मायूसी ना होती. आप लोगों के यात्रा वर्णन मे जो रोमांच है, वो मेरी यात्राओं मे कभी रह नही सकता-बच्चों के साथ यात्रा यानी पूरी प्लॅनिंग. इस तरह की यात्रा कभी नही की . कभी हो पाएगी इसकी भी गुंजाइश कम ही है.लेकिन जो मिला है वो भी क्या कम है.

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    1. आप यहां तक आए उसके लिए पहले धन्यवाद। हां ज्यादा देर से पहुंचते तो मायूसी न होती और पहुंच भी तो मंदिर बंद होने के केवल 10 से 12 मिनट बाद ही तो मायूसी ज्यादा हुई। बच्चों के साथ यात्रा करने में थोड़ी जिम्मेदारियां और बंदिशें तो होती ही हैं और बिना पूरी योजना बनाए यात्रा नहीं कर सकते। पर उदास न हो जी शुभकामनाएं हैं कि आप भी ऐसी यात्रा करेंगी और अवश्य करेंगी। कर नहीं भी कर पायेंगी तो क्या हुआ आप जो यात्राओं का अनुभव ले रही है वो किसी भी बात में दूसरों से कम नहीं हैं।
      शुभकामनाएं और धन्यवाद आपका।

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  9. मतलब इस यात्रा में परेशानी ने आपका साथ फिर भी न छोड़ा ..... तुंगनाथ भगवान के दर्शन हो नही पाए क्योकि देरी से पहुचे आप और चंद्रशिला का रास्ता ही न मिला.... फिर रोमांचक रही आपकी यात्रा .. जय तुंगनाथ जी की

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    1. धन्यवाद आपका।
      नहीं, बिल्कुल ये बरसात और अंत में परेशानी साथ छोड़ने का नाम ले ही नहीं रहा था बिल्कुल साथ हो लिया था। जी हां न तो महादेव के दर्शन हुए न चंद्रशिला का रास्ता मिला पर जो मिला जो भी किसी चीज से कम नहीं था।
      हर हर महादेव।

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